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________________ 50 दिगम्बर परंपरा में मात्र धवला की टीका, जो यापनीय ग्रंथ षडागम की दिगम्बर परंपरा की टीका है, में ही इस ग्रंथ के नाम का उल्लेख हुआ है, जबकि श्वेताम्बर परंपरा की आगमिक व्याख्याओं में वीर निर्वाण की 6ठी या 7वीं शती से लेकर 15-16वीं शती तक के अनेक आचार्यों के ग्रंथों में इसका उल्लेख किया गया है। विशेषावश्यक भाष्य (ईस्वी सन् 6ठीं शती) की गाथा 1775 में 'जोणीविहाण' के रूप में इस ग्रंथ का उल्लेख है। निशीथचूर्णि (लगभग 7वीं शती) में आचार्य सिद्धसेन द्वारा योनिप्राभृत के आधार पर अश्व बनाने का उल्लेख है। मलधारगच्छीय आचार्य हेमचन्द्र द्वारा रचित विशेषावश्यक की भाष्य टीका में इस ग्रंथ के आधार पर अनेक विजातीय द्रव्यों के सहयोगसेसर्प, सिंह आदि प्राणी और मणि, स्वर्ण आदि पदार्थों को उत्पन्न करने का उल्लेख है। कुवलयमाला भी योनिप्राभृत में उल्लिखित रासायनिक प्रक्रियाओं का उल्लेख करती है। इसके अनुसार, जोणीपाहुड में स्वर्ग सिद्धि आदि विद्याओं का उल्लेख है। जिनेश्वरसूरि ने कथाकोष-प्रकरण के सुन्दरीदत्त' कथानक में जिनभाषित पूर्वगत जोणी पाहुडशास्त्र का उल्लेख किया है। प्रभावक चरित (5/115/122) में भी इसग्रंथ के आधार पर मछलीऔर सिंह बनाने के निर्देश हैं। ___कुलमण्डनसूरि द्वारा विक्रम संवत् 1473 में रचित विचारामृत संग्रह (पृ. 9) में उल्लेख है कि अग्रायणीपूर्व से निर्गत यानिप्राभृत के कुछ उपदेशों की देशना को धरसेन द्वारा वर्जित कहा गया है। इसमें उज्जंतगिरि (पश्चिमी सौराष्ट के गिरिनगर) में इस ग्रंथ के उद्धार का भी उल्लेख हैं । इससे धवला में उन्हें जो गिरिनार की चन्द्रगुफा में निवास करने वाला बताया गया है, उस कथन की पुष्टि होती है। इसी ग्रंथ के चतुर्थ खण्ड में अग्रायणी पूर्व के मध्य 28 हजार गाथाओं में वर्णित शास्त्र को संक्षेप में किये जाने का भी उल्लेख है"। जहाँ दिगम्बर परंपरा में छठवीं शताब्दी से लेकर 15वीं शताब्दी तक अनेक ग्रंथों में उनके इस ग्रंथ के निरंतर उल्लेख पाये जाते हैं। इससे यह निश्चित होता है, धरसेन और उनका ग्रंथ योनिप्राभृत (जोणिपाहुड) श्वेताम्बर परंपराओं में मान्य रहा है। अतः, वे उत्तर भारत की उसी निग्रंथ परंपरा से सम्बद्ध होंगे, जिनके ग्रंथों का उत्तराधिकार श्वेताम्बर और यापनीय- दोनों को समान रूप से मिला है। यापनीयों के माध्यम से ही इनका और इनके ग्रंथ जोणीपाहुड का उल्लेख धवला में हुआ है।
SR No.006191
Book TitleJain Sahityakash Ke Aalokit Nakshatra Prachin Jainacharya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith
Publication Year2016
Total Pages228
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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