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3. आचार्य धरसेन (ईस्वी सन् लगभग 4थी एवं 5वीं शती) महाकर्म प्रकृतिशास्त्र के उपदेश तथा षट्खण्डागम के रचयिता पुष्पदन्त और भूती के विद्यागुरु आचार्य धरसेन का नाम जैन धर्म की श्वेताम्बर, दिगम्बर और यापनीय संघ के आचार्य परंपरा के बहुश्रुत आचार्य थे, फिर भी श्वेताम्बर और दिगम्बर पट्टावलियां उनके नाम का निर्देश नहीं करती हैं। वे यापनीय संघ, जो आगे चलकर मूलसंघ के नाम से प्रसिद्ध हुआ, से सम्बद्ध थे। संभवतः, इसी कारण श्वेताम्बर एवं दिगम्बर पट्टावलियाँ उनका उल्लेख नहीं करती। मात्र नंदीसंघ, जो यापनीय धारा से संबंधित रहा है, अपनी पट्टावली में उनका उल्लेख करता है। यदि वे परवर्ती काल के हैं, तो अधिक से अधिक हम उन्हें उत्तर भारत में विभाजित हुई अचेल परंपरा, जो कि आगे चलकर यापनीय नाम से विकसित हुई, से सम्बद्ध मान सकते हैं। संभावना यही है कि वे महाराष्ट, उत्तर कर्नाटक और आंध्रप्रदेश में विचरण कररही उत्तर भारत की अचेल परंपरा, जो यापनीय नाम से प्रसिद्ध हुई, से संबंध हों। उन्होंने पुष्पदंत
और भूतबलि नामक मुनियों को कर्मशास्त्र का अध्ययन कराया हो, क्योंकि उसी परंपरा से उनकी निकटता थी। पुनः, जिस नंदीसंघ पट्टावली को आधार बनाकर यह चर्चा की जा रही है, वह नंदीसंघ भी यापनीय परंपरा से सम्बद्ध रहा है। कणपके शक संवत् 735, ईस्वी सन् 812 के एक अभिलेख में 'श्री यापनीय नन्दिसंघ पुन्नागवृक्ष मूलगण' ऐसा स्पष्ट उल्लेख है। यापनीय और नंदीसंघ की एकरूपता और नंदीसंघ की पट्टावली में धरसेन के उल्लेख से भी यही सिद्ध होता है कि धरसेन यापनीय संघ से सम्बद्ध रहे हैं।
धरसेन के संदर्भ में जो अन्य ऐतिहासिक साक्ष्य उपलब्ध हैं, उनमें दो का उल्लेख विद्वानों ने किया है। सर्वप्रथम आचार्य धरसेन को जोणिपाहुड (योनिप्राभृत) नामक निमित्त शास्त्र के एक अपूर्व ग्रंथ का रचयिता माना गया है। इस ग्रंथ की एक प्रति भाण्डारकर ओरियन्टल रिसर्च इंस्टिट्यूट पूना में है। पंडित बेचरदासजी ने इस प्रति से जो नोट्स लिखे थे, उनके आधार पर यह ग्रंथ पण्णसवन मुनि ने अपने शिष्य पुष्पदंत
और भूतबलि के लिए लिखा था। वि.स. 1556 में लिखी गई बृहदटिप्पणिका में इस ग्रंथ को वीर निर्वाण के 600 वर्ष पश्चात् धारसेन (धरसेन) द्वारा रचित माना गया है।' इस ग्रंथ के उल्लेख श्वेताम्बर और दिगम्बर- दोनों ही परंपराओं में पाये जाते हैं, किन्तु