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________________ 48 (ii) अकलंक ने तत्त्वार्थ 118 में तो गुणस्थान का निर्देश नहीं किया, मात्र 'मार्गणास्थान का निर्देश किया, किन्तु अध्याय के सूत्र 3 एवं अध्याय 9 के सूत्र 7 एवं 26 में गुणस्थान का निर्देश किया है। ... मिथ्यादृष्ट्यादिचतुर्दशगुणस्थानभेदात् /5/3 जीवस्थानगुणस्थानानां गत्यादिषु मार्गणा लक्षणो धर्मः स्वारण्यातः । - 9/7/10 इस प्रकार अकलंक के सम्मुख सप्तभंगीऔर गुणस्थान उपस्थितथे। 10. एदेसिंचेवचोद्दसण्हंजीवसमासाणं...। छक्खण्डागम-1/1/5. (विस्तार एवं सभी नामों के लिये देखें - छक्खण्डागम- 1 /1/9-22) ज्ञातव्य है कि छक्खण्डागम गुणस्थानों के लिये समवायांग के जीवठाण के समान जीव समासशब्द का प्रयोग करता है, गुणस्थान का नहीं । अतः दोनों तत्सम्बन्धी विवरण में पर्याप्त समानता है और ये कुन्दकुन्द की अपेक्षापूर्ववर्ती है) 11. (अ) सम्यग्दृष्टि श्रावक विरतान्तवियोजक दर्शनमोह क्षपकोपशामककोपशांतमोहक्षपक क्षीणमोहजिनाः...। - तत्त्वार्थ 9/45 (इसी अवधारणा से गुणस्थान की अवधारणा का विकास हुआ, इसका प्रमाण यह है कि पूज्यपाद गुणस्थान की चर्चा में गुणस्थान के अपने नाम के साथ-साथ उपशामक क्षपक आदि उपर्युक्त नामों का समन्वय करते हैं - देखे सर्वार्थसिद्धि-1/8) ज्ञातव्य है कि कसायपाहुडसुत्त में भी गुणस्थान संबंधी कुछ पारिभाषिक शब्दों के होते हुए भी संपूर्ण सिद्धांत का कहीं निर्देश नहीं है, अतः कसाय-पाहुडसुत्त और तत्त्वार्थसूत्र की समकालिकता सिद्ध होती है और दोनों स्पष्टतः सम्प्रदायभेद के पूर्व की रचनाएँ हैं। 12. देखें - बोधपाहुड-31, 32 भावपाहुड 97,समयसार 55, नियमसार 78 13. देखें - षट् खण्डागम - 1/1/5 तथा 1/1/9-22 14. भगवती आराधना 1086-88 15. मूलाचार, 12 (पर्याप्ति- अधिकार) / 154-155
SR No.006191
Book TitleJain Sahityakash Ke Aalokit Nakshatra Prachin Jainacharya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith
Publication Year2016
Total Pages228
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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