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________________ 45 सकता है कि तत्त्वार्थसूत्र, कसायपाहुड और षट्खण्डागम में गुणस्थान की अवधारणा का क्रमिक विकास हुआ है । - जैसा कि हमने निर्देश किया है श्वेताम्बरमान्य समवायांग में 14 जीवठाण के रूप में 14 गुणस्थानों का निर्देश है, किन्तु अनेक आधारों पर यह सिद्ध होता है कि समवायांग में प्रथम शती से पांचवीं शती के बीच अनेक प्रक्षेप हो रहे हैं, अतः वलभी वाचना के समय ही जीव समास का यह विषय उसमें संकलित किया गया होगा । अन्य प्राचीन स्तर के श्वेताम्बर आगमों, जैसे- आचारांग, सूत्रकृतांग, उत्तराध्ययन, दशवैकालिक, भगवती और यहाँ तक की प्रथम शताब्दी में रचित प्रज्ञापना और जीवाभिगम में भी गुणस्थान का अभाव है । इन आगमों में ऐसे कई प्रसंग थे, जहां गुणस्थान की चर्चा की जा सकती थी, किन्तु उसका कहीं भी उल्लेख या नाम निर्देश तक न होना यही सिद्ध करता है कि तत्त्वार्थसूत्र के काल तक ये अवधारणाएँ अस्तित्व नहीं आई थीं। चूँकि कुन्दकुन्द", षट्खण्डागम ", भगवती आराधना" और मूलाचार" आदि सभी इन अवधारणाओं की चर्चा करते हैं, अतः वे तत्त्वार्थ से पूर्ववर्ती नहीं हो सकते। यदि यह कहा जाये कि उमास्वाति के समक्ष ये अवधारणाएँ उपस्थित तो थीं, किन्तु उन्होंने अनावश्यक समझकर उनका संग्रह नहीं किया होगा, तो फिर प्रश्न यह उठता है कि तत्त्वार्थभाष्य के अतिरिक्त तत्त्वार्थसूत्र के सभी श्वेताम्बर और दिगम्बर टीकाकार इस सिद्धांत की चर्चा क्यों करते हैं ? यहाँ तक की तत्त्वार्थसूत्र के प्रथम दिगम्बर टीकाकार पूज्यपाद देवनन्दी सर्वार्थसिद्धि में तत्त्वार्थ के प्रथम अध्याय के आठवें सूत्र की चर्चा में न केवल इनका नाम निर्देश करते हैं, अपितु अति विस्तृत व्याख्या भी करते हैं । यदि हम पूज्यपाद देवनन्दी का काल पाँचवीं का उत्तरार्द्ध और छठवीं शताब्दी का पूर्वार्द्ध मानते हैं, तो हमें यह मानना होगा कि इसी काल में यह अवधारणा सुनिर्धारित होकर अपने स्वरूप में आ गई थी । यही काल श्वेताम्बर आगमों की अंतिम वाचना का काल है। संभव यही है कि इसी समय उसे समवायांग में डाला गया होगा । अतः, यह सुनिश्चित है कि उमास्वाति के तत्त्वार्थसूत्र का आधार न तो कुन्दकुन्द के ग्रंथ हैं और न षट्खण्डागम ही, क्योंकि ये सभी तत्वार्थसूत्र और उसके स्वोपज्ञभाष्य के बाद की रचनाएँ हैं । यद्यपि कसायपाहुड को किसी सीमा तक तत्त्वार्थसूत्र का समसामयिक माना जा सकता है, फिर भी गुणस्थान सिद्धांत की दृष्टि से यह तत्त्वार्थ से किञ्चित परवर्ती सिद्ध होता है ।
SR No.006191
Book TitleJain Sahityakash Ke Aalokit Nakshatra Prachin Jainacharya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith
Publication Year2016
Total Pages228
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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