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________________ 44 गुणस्थान का यह सिद्धान्त समवायांग के 14 जीव-समासों के उल्लेखों के अतिरिक्त श्वेताम्बरमान्य आगम साहित्य में सर्वथा अनुपस्थित है, यहाँ भी इसे श्वेताम्बर विद्वानों ने प्रक्षिप्त ही माना है। तत्त्वार्थसूत्र और उसके भाष्य में भी इन दोनों सिद्धांतों का पूर्ण अभाव है, जबकि तत्त्वार्थसूत्र की सभी दिगम्बर टीकाओं में इन सिद्धांतों के उल्लेख प्रचुरता से पाये जाते हैं। पूज्यपाद देवनन्दी यद्यपि सप्तभंगी सिद्धांत की चर्चा नहीं करते, परन्तु गुणस्थान की चर्चा तो वे भी कर रहे हैं। दिगम्बर परंपरा में आगमरूप में मान्य षट्खण्डागम तो गुणस्थान की चर्चा पर ही स्थित है। उमास्वाति के तत्त्वार्थ में गुणस्थान और सप्तभंगी की अनुपस्थिति स्पष्ट रूप से यह सूचित करती है कि ये अवधारणाएँ उनके काल तक अस्तित्व में नहीं आई थीं अन्यथा आध्यात्मिक विकास और कर्मसिद्धांत के आधार रूप गुणस्थान के सिद्धांत को वे कैसे छोड़ सकते थे? चाहे विस्तार रूप में चर्चा भले ही नहीं करते, परंतु उनका उल्लेख अवश्य करते हैं। तत्त्वार्थ सूत्र 11 में सम्यग्दृष्टि, श्रावक, विरत, अनन्तवियोजक, दर्शनमोहक्षपक, उपशमक, उपशान्तमोह, क्षमक, क्षीणमोह और जिन- निर्जरा के परिणामस्वरूप आध्यात्मिक विकास की इन दस अवस्थाओं का चित्रण और इनमें गुणस्थानों के कुछ पारिभाषिक नामों की उपस्थिति यही सिद्ध करती है कि उस काल तक गुणस्थान की अवधारणा निर्मित तो नहीं हुई थी, परंतु अपना स्वरूपअवश्य ग्रहण कर रही थी। तत्त्वार्थसूत्र और गुणस्थान पर श्रमण अप्रैल-जून 1992 में प्रकाशित मेरा स्वतंत्र लेख देखें । पं. दलसुखभाई के अनुसार, तत्त्वार्थसूत्र में आध्यात्मिक विकास से संबंधित जो दस नाम मिलते हैं, वे बौद्धों की दस भूमियों की अवधारणा पर निर्मित हुए हैं और इन्हीं से आगे गुणस्थान की अवधारण का विकास हुआ है। यदि उमास्वाति के समक्ष गुणस्थान की अवधारणा होती, तो फिर वे आध्यात्मिक विकास की इन दस अवस्थाओं की चर्चा न करके 14 गुणस्थानों की चर्चा अवश्य करते। ज्ञातव्य है कि कषायपाहुडसुत्त में भी तत्त्वार्थसूत्र के समान गुणस्थान सिद्धांत के कुछ पारिभाषिक शब्दों की उपस्थिति होते हुए भी सुव्यवस्थित गुणस्थान सिद्धांत का अभाव देखा जाता है, जबकि कसायपाहुडसुत्त के चूर्णि-सूत्रों में गुणस्थान सिद्धांत की उपस्थिति देखी जाती है। कषायप्राभृत के कुछ अधिकारों के नाम तत्त्वार्थसूत्र के समान ही हैं- सम्यकत्त्व, देशविरति, संयत, उपशामक, क्षपक गाथा (14), फिर भी कसायपाहुड का विवरण तत्त्वार्थ की अपेक्षा कुछ अधिक व्यवस्थित एवं विस्तृत लगता है। ऐसा माना जा
SR No.006191
Book TitleJain Sahityakash Ke Aalokit Nakshatra Prachin Jainacharya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith
Publication Year2016
Total Pages228
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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