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________________ पूर्वज उत्तर भारत की निग्रंथ धारा की कोटिगण की उच्चानागरी शाखा में हुए हैं। उनके संबंध में इतना मानना ही पर्याप्त है। उन्हें श्वेताम्बर, दिगम्बर या यापनीय सम्प्रदाय से जोड़ना मेरी दृष्टि में उचित नहीं है। क्याउमास्वाति के तत्त्वार्थसूत्र काआधार कुन्दकुन्द के ग्रंथ हैं डॉ. नेमिचन्द्र शास्त्री ने तत्त्वार्थ के आधार के रूप में मुख्यतया षड्खण्डागम, कसायपाहुड एवं कुन्दकुन्द के ग्रंथों की चर्चा की है', अन्य दिगम्बर विद्वान् भी इसी मत की पुष्टि करते हैं। इस संबंध में सर्वप्रथम तो यह विचार करना होगा कि क्या तत्त्वार्थसूत्र की रचना कसायपाहुड, षट्खण्डागम एवं कुन्दकुन्द के ग्रंथों में अनेक समानताएं परिलक्षित होती हैं, किन्तु मात्र इससे यह निष्कर्ष नहीं निकाला जा सकता कि उमास्वाति ने ही इन्हें कुन्दकुन्द से ग्रहण किया है। संभावना यह भी हो सकती है कि कुन्दकुन्द ने ही उमास्वाति से इन्हें लिया हो। हमें तो यह देखना होगा कि उनमें से कौन पूर्व में हुए और कौन पश्चात्। जहां तक दिगम्बर पट्टावलियों का प्रश्न है, उनमें से कुछ में उमास्वाति को कुन्दकुन्द का साक्षात् शिष्य और कुछ में परंपरा शिष्य बताया गया है, किन्तु ये सभी पट्टावलियाँ पर्याप्त परवर्ती लगभग 10वीं शती के बाद की हैं, अतः प्रामाणिक नहीं मानी जा सकती । स्वयं पं. नाथूरामजी प्रेमी जैसे निष्पक्ष दिगम्बर विद्वानों ने भी उन्हें प्रामाणिक नहीं माना है।' मर्कराभिलेख, जिसको आधार बनाकर विद्वानों ने कुन्दकुन्द को पहली से तीसरी शताब्दी के मध्य रखने का प्रयास किया था, अब अप्रामाणिक (जाली) सिद्ध हो चुका है। अब 9वीं शताब्दी से पूर्व का कोई भी ऐसाअभिलेख नहीं है, जो कुन्दकुन्द या उनकी अन्वय का उल्लेख करता हो। लगभग 10वीं शती तक कुन्दकुन्द के ग्रंथों के निर्देशया उन पर टीका की अनुपस्थिति भी यही सूचित करती है कि कुन्दकुन्द छठवीं शताब्दी के पूर्व तो किसी भी स्थिति में नहीं हुए हैं, इस तथ्य को प्रो. मधुसूदन ढ़ाकी और मुनि कल्याणविजयजी ने अनेक प्रमाणों से प्रतिपादित किया है, जबकि उमास्वाति किसी भी स्थिति में तीसरी या चौथी शताब्दी से परवर्ती सिद्ध नहीं होते हैं। वस्तुतः, कुन्दकुन्द एवं उमास्वाति के काल का निर्णय करने के लिए कुन्दकुन्द एवं उमास्वाति के ग्रंथों में उल्लिखित सिद्धांतों का विकासक्रम देखना पड़ेगा। यह बात सुनिश्चित है कि कुन्दकुन्द के ग्रंथों में गुणस्थान' और सप्तभंगी का स्पष्ट निर्देश है।
SR No.006191
Book TitleJain Sahityakash Ke Aalokit Nakshatra Prachin Jainacharya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith
Publication Year2016
Total Pages228
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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