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के पूर्वार्द्ध के, अर्थात् ई. सन् 475 से 490 के अभिलेखों में सर्वप्रथम श्वेतपट्ट महाश्रमणसंघ (श्वेताम्बर), निर्ग्रन्थमहाश्रमणसंघ (दिगम्बर )और यापनीय संघ के उल्लेख मिलते हैं। प्रो. मधुसूदन ढाकी ने उमास्वाति का काल चतुर्थ शती निर्धारित किया है। उपर्युक्त चर्चा के आधार पर मैं इसे तीसरी शताब्दी के उत्तरार्द्ध से चौथी शती के पूर्वार्द्ध के बीच मानना चाहूँगा। चाहे हम उमास्वाति का काल प्रथम से चतुर्थ शती के बीच कुछ भी मानें, किन्तु इतना तो निश्चित है कि वे संघभेद के पूर्व के हैं। यदि हम उमास्वाति के प्रगुरु शिव का समीकरण आर्य शिव, जिनका उल्लेख कल्पसूत्र स्थविरावली में भी है और उत्तर भारत में वस्त्र-पात्र संबंधी विवाद के जनकथे, से करते हैं, तो समस्या का समाधान मिलने में सुविधा होती है। आर्य शिव वीर निर्वाण सं. 609 अर्थात् विक्रम की तीसरी शताब्दी के पूर्वार्द्ध में उपस्थित थे। इस आधार पर उमास्वाति तीसरी के उत्तरार्द्ध और चौथी के पूर्वार्द्ध में हुए होंगे, ऐसा माना जा सकता है। यह भी संभव है कि वे इस परंपराभेद में भी कौडिण्य और कोट्टवीर के साथ संघ से अलग न होकर मूलधारा से जुड़े रहे हों। फलतः, उनकी विचारधारा में यापनीय और श्वेताम्बर- दोनों ही परंपरा की मान्यताओं की उपस्थिति देखी जाती है। वस्त्र-पात्र को लेकर वेश्वेताम्बरों और अन्य मान्यताओं के संदर्भ में यापनियों के निकट रहे हैं।
इन समस्त चर्चाओं से हम इस निष्कर्ष पर पहुँचते हैं कि उमास्वाति का काल विक्रम संवत् की तीसरी और चौथी शताब्दी के मध्य है और इस काल तक वस्त्र-पात्र संबंधी विवादों के बावजूद भी श्वेताम्बर, दिगम्बर और यापनियों का अलग-अलग साम्प्रदायिक अस्तित्व नहीं बन पाया था। स्पष्ट सम्प्रदाय भेद, सैद्धांतिक मान्यताओं का निर्धारण और श्वेताम्बर, दिगम्बर और यापनीय जैसे नामकरण पाँचवीं शताब्दी में या उसके बाद ही अस्तित्व में आये हैं। उमास्वाति निश्चित ही स्पष्ट सम्प्रदाय भेद और साम्प्रदायिक मान्यताओं के निर्धारण के पूर्व के आचार्य हैं। वे उस संक्रमण काल में हुए हैं, जब श्वेताम्बर, दिगम्बर और यापनीय सम्प्रदाय और उनकी साम्प्रदायिक मान्यताएँ और स्थिर हो रहीथीं।
__ अतः, वे उस अर्थ में श्वेताम्बर या दिगम्बर नहीं हैं, जिस अर्थ में आज हम इन शब्दों का अर्थ लेते हैं। वे यापनीय भी नहीं हैं, क्योंकियापनीय सम्प्रदाय का सर्वप्रथम अभिलेखीय प्रमाणभी विक्रम की छठवीं शताब्दी के पूर्वार्ध और ईसा की पाँचवींशती के उत्तरार्द्ध (ई.सन् 475) का मिलता है। अतः, वे श्वेताम्बर और यापनीयों की