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________________ 41 एक शाखा उच्चानगरी है। कुछ अभिलेखों में स्थानिक कुल के साथ वज्री शाखा का भी उल्लेख हुआ है, यद्यपि उच्चनागरी और वज्री - दोनों ही शाखाएँ कोटिकगण की हैं। मथुरा के एक अन्य अभिलेख में 'निवतनासीवद' - ऐसा उल्लेख भी मिलता है । निवर्त्तना सम्भवतः समाधि स्थल की सूचक है, यद्यपि इससे ये आर्यघोषक और आर्य शिव निश्चित रूप से ही उमास्वाति के गुरु एवं प्रगुरु हैं, इस निष्कर्ष पर पहुँचना कठिन है, फिर भी संभावना तो व्यक्त की ही जा सकती है । आर्य कृष्ण और आर्य शिव, जिनके बीच वस्त्र - पात्र संबंधी विवाद वीर नि.सं. 609 में हुआ था, उन दोनों के उल्लेख हमें मथुरा के कुषाणकालीन अभिलेखों में उपलब्ध होते हैं। यद्यपि आर्य शिव के संबंध में जो अभिलेख उपलब्ध हैं, उसके खण्डित होने से संवत् का निर्देश तो स्पष्ट नहीं है, किन्तु 'निवतनासीवद' ऐसा उल्लेख है, जो इस तथ्य का सूचक है कि उनके समाधि स्थल पर कोई निमार्ण कार्य किया गया था। आर्य कृष्ण का उल्लेख करने वाला अन्य लेख स्पष्ट है और उसमें शक् संवत् 95 निर्दिष्ट है । इस अभिलेख में कोटीयगण, स्थानीयकुल और वैरी शाखा का उल्लेख भी है । इस आधार पर आर्य शिव और आर्य कृष्ण का काल वि. सं. 230 के लगभग आता है । वस्त्र-पात्र विवाद का काल वीर नि.सं. 609 तदनुसार 609-410 अर्थात् वि.सं. 199 मानने पर इसकी संगति उपर्युक्त अभिलेख से हो जाती है, क्योंकि आर्य कृष्ण की यह प्रतिमा उनके स्वर्गवास के 30-40 वर्ष बाद ही कभी बनी होगी । उससे यह बात भी पुष्ट होती है कि आर्य शिव आर्य कृष्ण से ज्येष्ठ थे। कल्पसूत्र स्थविरावली में भी उन्हें ज्येष्ठ कहा गया है। संभावना यह भी हो सकती है, ये दोनों गुरुभाई हों और उनमें आर्य शिव ज्येष्ठ और आर्य कृष्ण कनिष्ठ हों, या आर्य शिव कृष्ण के गुरु हों, यद्यपि विशेषावश्यकभाष्य में साम्प्रदायिक अभिनिवेश के कारण यह क्रम उलट दिया गया है । - इन आर्य शिव को उमास्वाति का प्रगुरु मानने पर उनका काल तीसरी शताब्दी का पूर्वार्द्ध होगा, किन्तु तीसरी शती के उत्तरार्द्ध से चौथी शताब्दी पूर्वार्द्ध तक के जो भी जैन शिलालेख उपलब्ध हैं, उनमें कहीं भी श्वेताम्बर, दिगम्बर या यापनीय - ऐसा उल्लेख उपलब्ध नहीं होता । वस्त्र, पात्र आदि के उपयोग को लेकर विक्रम संवत् की तीसरी शताब्दी के पूर्वार्द्ध से विवाद प्रारंभ हो गया था, किन्तु स्पष्ट रूप से श्वेताम्बर, दिगम्बर या यापनीय परंपराओं के भेद स्थापित नहीं हुए थे । वि. सं. की छठवीं शताब्दी
SR No.006191
Book TitleJain Sahityakash Ke Aalokit Nakshatra Prachin Jainacharya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith
Publication Year2016
Total Pages228
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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