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________________ 40 लगभग सौ वर्ष पश्चात् ही हुआ होगा, क्योंकि पांचवीं शती के पूर्व इन नामों का कहीं कोई उल्लेख नहीं मिलता। तीसरी-चौथी शताब्दी के समवायांग जैसे श्वेताम्बर मान्य आगमों और यापनीय परंपरा के कसायपाहुड एवं षट्खण्डागम जैसे ग्रंथों से तत्त्वार्थसूत्र की कुछ निकटता और विरोध यही सिद्ध करता है कि उसकी रचना इनके पूर्व हुई है। तत्त्वार्थभाष्य की प्रशस्ति तत्त्वार्थसूत्र के कर्ता के काल का निर्णय करने का आज एकमात्र महत्वपूर्ण साधन है। उस प्रशस्ति के अनुसार तत्त्वार्थ के कर्ता उच्चैर्नागर शाखा में हुए। उच्चैर्नागर शाखा का उच्चनागरी शाखा के रूप में कल्पसूत्र में उल्लेख है। उसमें यह भी उल्लेख है कि यह शाखाआर्यशान्तिश्रेणिक से प्रारंभ हुई। कल्पसूत्र स्थविरावली के अनुसार शान्तिश्रेणिक आर्यवज्र के गुरु सिंहगिरि के गुरुभ्राता थे। श्वेताम्बर पट्टावलियों में आर्यवज्र का स्वर्गवास काल वीर निर्वाण सं. 584 माना जाता है। अतः, आर्य शान्तिश्रेणिक का जीवन काल वीर निर्वाण 470 से 550 के बीच मानना होगा। फलतः, आर्य शांन्तिश्रेणिक से उच्चनागरी की उत्पत्ति विक्रम की प्रथम शताब्दी के उत्तरार्द्ध और द्वितीय शताब्दी के पूर्वार्द्ध किसी समय हुई। इसकी संगति मथुराके अभिलेखों से भी होती है। उच्चैर्नागरशाखा का प्रथम अभिलेखशक् सं. 5 अर्थात् विक्रम संवत् 140 का है, अतः उमास्वाति का काल विक्रम की द्वितीय शताब्दी या उसके पश्चात् ही होगा। उमास्वाति के तत्त्वार्थभाष्य में उन्हें उच्चैर्नागर शाखा का बताया गया है। इस शाखा के नौ अभिलेख हमें मथुरा से उपलब्ध होते हैं, जिन पर कनिष्क, हुविष्क और वासुदेव के उल्लेख हैं। यदि इन पर अंकित सम्वत् शक संवत् हो, तो यह काल शक् संवत् 5 से 87 के बीच आता है, इतिहासकारों के अनुसार कनिष्क, हुविष्क और वासुदेव ई. सन् 78 से 176 के बीच हुए हैं। विक्रम संवत् की दृष्टि से उनका यह काल सं. 135 से 233 के बीच आता है, अर्थात् विक्रम संवत्की द्वितीय शताब्दी का उत्तरार्द्ध और तृतीय शताब्दी का पूर्वार्द्ध। अभिलेखों के काल की संगति आर्य शांतिश्रेणिक और उनसे उत्पन्न उच्चनागरी शाखा के काल से ठीक बैठती है। उमास्वाति इसके पश्चात् ही कभी हुए हैं। तत्त्वार्थभाष्य में उमास्वाति ने अपने प्रगुरु घोषनन्दी श्रमण और गुरु शिवश्री का उल्लेख किया है। मुझे मथुरा के अभिलेखों में खोज करने पर स्थानिक कुल के गणि उग्गहिणी के शिष्य वाचक घोषक का उल्लेख उपलब्ध हुआ है। स्थानिक कुल भी उसी कोटिकगण का कुल है, जिसकी
SR No.006191
Book TitleJain Sahityakash Ke Aalokit Nakshatra Prachin Jainacharya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith
Publication Year2016
Total Pages228
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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