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34 अस्तित्व में नहीं आये थे। श्री कापड़ियाजी ने तत्त्वार्थ को प्रथम शताब्दी के पश्चात् चौथी शताब्दी के पूर्व की रचना माना है। तत्त्वार्थसूत्र और उसके भाष्य में ऐसे भी अनेक तथ्य हैं, जो न तो सर्वथा वर्तमान श्वेताम्बर परंपरा से और न ही दिगम्बर परंपरा से मेल खाते हैं। हिस्टी ऑफ मिडिवल स्कूल ऑफ इण्डियन लॉजिक' में तत्त्वार्थसूत्र की तिथि 185अऊ स्वीकार की गई है। प्रो. विंटरनित्ज मानते हैं कि उमास्वाति उस युग में हुए, जब उत्तर भारत में श्वेताम्बर और दिगम्बर सम्प्रदाय एक-दूसरे से पूर्णतः पृथक् नहींहुएथे। उनका ग्रंथ तत्त्वार्थ स्पष्टतः सम्प्रदायभेद के पूर्व का है। सम्प्रदायभेद के संबंध में सर्वप्रथम हमें जो साहित्यिक सूचना उपलब्ध होती है, वह आवश्यक मूलभाष्य की है, जो आवश्यकनियुक्ति और विशेषावश्यक के मध्य निर्मित हुआ था। उसमें वीर निर्वाण के 609 वर्ष पश्चात् ही बोटिकों की उत्पत्ति का अर्थात् उत्तर भारत में अचेल और सचेल परंपराओं के विभाजन का उल्लेख है, साथ ही उसमें यह भी उल्लेख है कि मुनि के सचेल याअचेल होने का विवाद तो आर्यकृष्ण और आर्य शिव के बीच वीर नि.सं. 609 में हुआ था, किन्तु परंपरा भेद उनके शिष्य कौडिण्य या कोट्टवीर से हुआ। इसका तात्पर्य यह है कि स्पष्ट रूप से परंपराभेद वीर नि.सं. 609 के पश्चात् हुआ है। सामान्यतया, वीर निर्वाण विक्रम संवत् से 470 वर्ष पूर्व माना जाता है, किन्तु इसमें 60 वर्ष का विवाद है, जिसकी चर्चा आचार्य हेमचन्द्र से लेकर समकालीन अनेक विद्वान् भी कर रहे हैं । इतिहासकारों ने चन्द्रगुप्त, अशोक और सम्प्रति आदि का जो काल निर्धारित किया है, उसमें चन्द्रगुप्त और भद्रबाहु की तथा सम्प्रति और सुहस्ति की समकालिकता वीर निर्वाण को विक्रम संवत् 410 वर्ष पूर्व मानने पर हीअधिक बैठती है। यदि वीर निर्वाण विक्रम संवत के 410 वर्ष पूर्व हुआहै, तो यह मानना होगा कि संघभेद 609-410 अर्थात् विक्रम संवत् 199 में हुआ।यदि इसमें भी हम कौडिण्य और कोट्टवीर का काल 60 वर्ष जोड़ें तो यह संघभेद लगभग विक्रम संवत् 259 अर्थात् विक्रम की तीसरी शताब्दी के उत्तरार्द्ध में हुआ होगा। इस संघभेद के फलस्वरूप श्वेताम्बर और यापनीय परंपरा का स्पष्ट विकास तो इसके भी लगभग सौ वर्ष पश्चात् ही हुआ होगा, क्योंकि पांचवीं शती के पूर्व इन नामों का कहीं कोई उल्लेख नहीं मिलता।
तीसरी-चौथी शताब्दी के समवायांग जैसे श्वेताम्बर मान्य आगमों और यापनीय परंपरा के कसायपाहुड एवं षट्खण्डागम जैसे ग्रंथों से तत्त्वार्थसूत्र की कुछ निकटताऔर विरोध यही सिद्ध करता है कि उसकी रचना इनके पूर्व हुई है।