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________________ 35 तत्त्वार्थभाष्य की प्रशस्ति तत्त्वार्थसूत्र के कर्ता के काल का निर्णय करने का आज एकमात्र महत्वपूर्ण साधन है। उस प्रशस्ति के अनुसार तत्त्वार्थ के कर्ता उच्चैर्नागर शाखा में हुए। उच्चैर्नागर शाखा का उच्चनागरी शाखा के रूप में कल्पसूत्र में उल्लेख है। उसमें यह भी उल्लेख है कि यह शाखाआर्य शान्तिश्रेणिक से प्रारंभ हुई। कल्पसूत्र स्थविरावली के अनुसार शान्तिश्रेणिक आर्यवज्र के गुरु सिंहगिरि के गुरुभ्राता थे। श्वेताम्बर पट्टावलियों में आर्यवज्र का स्वर्गवासकाल वीर निर्वाण सं. 584 माना जाताहै।अतः, आर्यशांतिश्रेणिक का जीवन कालवीर निर्वाण 470 से 550 के बीच मानना होगा। फलतः, आर्यशांन्तिश्रेणिक से उच्चनागरी की उत्पत्ति विक्रम की प्रथम शताब्दी के उत्तरार्द्ध और द्वितीय शताब्दी के पूर्वार्द्ध में किसी समय हुई। इसकी संगति मथुरा के अभिलेखों से भी होती है। उच्चैर्नागर शाखा का प्रथम अभिलेख शक् सं. 5 अर्थात् विक्रम संवत् 140 का है, अतः उमास्वाति का काल विक्रम की द्वितीय शताब्दी या उसके पश्चात् ही होगा। उमास्वाति के तत्त्वार्थभाष्य में उन्हें उच्चैर्नागर शाखा का बताया गया है। इस शाखा के नौ अभिलेख हमें मथुरा से उपलब्ध होते हैं, जिन पर कनिष्क, हुविष्क और वासुदेव का उल्लेख भी है। यदि इन पर अंकित सम्वत् शक् संवत् हो, तो यह काल शक् संवत् 5 से 87 के बीच आता है। इतिहासकारों के अनुसार कनिष्क, हुविष्क और वासुदेव ई. सन् 78 से 176 के बीच हुए हैं। विक्रम संवत् की दृष्टि से उनका यह काल सं. 135 से 233 के बीच आता है, अर्थात् विक्रम संवत् की द्वितीय शताब्दी का उत्तरार्द्ध और तृतीय शताब्दी का पूर्वार्द्ध। अभिलेखों के काल की संगति आर्य शान्तिश्रेणिक और उनसे उत्पन्न उच्चनागरी शाखा के काल से ठीक बैठती है। उमास्वाति इसके पश्चात् ही कभी हुए हैं। तत्त्वार्थभाष्य में उमास्वाति ने अपने प्रगुरु घोषनंदी श्रमण और गुरु शिवश्री का उल्लेख किया है। मुझे मथुरा के अभिलेखों में खोज करने पर स्थानिक कुल की गणि उग्गहिणी के शिष्य वाचकघोषक का उल्लेख उपलब्ध हुआ है। स्थानिककुल भी उसी कोटिकगण का कुल है, जिसकी एक शाखा उच्चानागरी है। कुछ अभिलेखों में स्थानिक कुल के साथ वज्री शाखा का भी उल्लेख हुआ है, यद्यपि उच्चनागरी और वज्री- दोनों ही शाखाएँ कोटिकगण की हैं। मथुरा के एक अन्य अभिलेख में निवतनासीवद' - ऐसा उल्लेख भी मिलता है। निवर्तना संभवतः समाधि स्थल का सूचक है, यद्यपि इससे ये आर्यघोषक और आर्य शिव निश्चित रूप से उमास्वाति के गुरु एवं प्रगुरु हैं, इस निष्कर्ष पर पहुँचना कठिन है, फिरभी संभावना तो व्यक्त की जा सकती है।
SR No.006191
Book TitleJain Sahityakash Ke Aalokit Nakshatra Prachin Jainacharya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith
Publication Year2016
Total Pages228
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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