________________
33
उमास्वाति का काल:
उमास्वाति के काल निर्णय के संदर्भ में जो भी प्रयास हुए हैं, वे सभी उन्हें प्रथम से चौथी शताब्दी के मध्य सिद्ध करते हैं। उमास्वाति के ग्रंथों में हमें सप्तभंगी और गुणस्थान सिद्धांत का सुनिश्चित स्वरूप उपलब्ध नहीं होता, यद्यपि गुणस्थान सिद्धांत से संबंधित कुछ पारिभाषिक शब्दों की उपस्थिति से इतना संकेत अवश्य मिलता है कि ये अवधारणाएँ अपने स्वरूप के निर्धारण की दिशा में गतिशील थीं। इससे हम इस निष्कर्ष पर तो पहुँच ही सकते हैं कि उमास्वाति इन अवधारणाओं के सुनिर्धारित एवं सुनिश्चित होने के पूर्व ही हुए हैं । तत्त्वार्थसूत्र की जो प्राचीन टीकाएँ उपलब्ध हैं, उनमें श्वेताम्बर परंपरा में तत्त्वार्थ -भाष्य को और दिगम्बर परंपरा में सर्वार्थसिद्धि को प्राचीनतम माना जाता है। इनमें से तत्त्वार्थ -भाष्य में गुणस्थान और सप्तभंगी की स्पष्ट अवधारणा उपलब्ध नहीं है, जबकि सर्वार्थसिद्धि में गुणस्थान का स्पष्ट एवं विस्तृत विवरण है । तत्त्वार्थसूत्र के परवर्ती टीकाकारों में सर्वप्रथम अकलंक अपने तत्त्वार्थराजवार्त्तिक के चौथे अध्याय के अंत में सप्तभंगी का तथा नौवें अध्याय के प्रारंभ में गुणस्थान सिद्धांत का पूर्ण विवरण प्रस्तुत करते हैं। तत्त्वार्थ की टीकाओं के अतिरिक्त अन्य ग्रंथों में, विशेष रूप से श्वेताम्बर आगमों में समवायांग में 'जीवठाण' के नाम से, यापनीय ग्रंथषट्खण्डागम में जीवसमास' के नाम से और दिगम्बर परंपरा में कुन्दकुन्द के ग्रंथों में 'गुणठाण' के नाम से इस सिद्धांत का उल्लेख मिलता है। ये सभी ग्रंथ लगभग पांचवीं शती के आसपास के हैं, इसलिए इतना तो निश्चित है कि तत्त्वार्थ की रचना चौथी-पांचवीं शताब्दी के पूर्व की है। यह सही है कि ईसा की दूसरी शताब्दी से वस्त्र-पात्र के प्रश्न पर विवाद प्रारंभ हो गया, फिर भी यह निश्चित है कि पांचवीं शताब्दी के पूर्व श्वेताम्बर, दिगम्बर और यापनीय जैसे सम्प्रदाय अस्तित्व में नहीं आ पाये थे। निर्ग्रन्थसंघ (दिगम्बर), श्वेतपट्टमहाश्रमणसंघ और यापनीय संघ का सर्वप्रथम उल्लेख हल्सी के पांचवीं शती के अभिलेखों में ही मिलता है।
मूल संघ का उल्लेख उससे कुछ पहले ई. सन् 370 एवं 421 का है। तत्त्वार्थ के मूलपाठों की कहीं दिगम्बर परंपरासे, कहीं श्वेताम्बर परंपरा से और कहीं यापनीय परंपरा से संगति होना और कहीं विसंगति होना यही सूचित करता है कि वह संघभेद के पूर्व की रचना है। मुझे जोसंकेत सूत्र मिले हैं, उससे ऐसा लगता है कि तत्त्वार्थ उस काल की रचना है, जब श्वेताम्बर, दिगम्बर और यापनीय संघ स्पष्ट रूप से विभाजित होकर