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________________ स्पष्ट उल्लेख है, ये दानपत्र गुप्त सं. 156 से गुप्त सं. 209 के बीच के हैं । (विस्तृत विवरण के लिये देखें - ऐतिहासिक स्थानावली- विजयेन्द्र कुमार माथुर, पृ 260261)। इससे इस नगर की गुप्तकाल में तो अवस्थिति स्पष्ट हो जाती है। पुनः, जिस प्रकार विदिशा के समीप सांची का स्तूप निर्मित हुआ है, उसी प्रकार इस उच्चैर्नगर (ऊँचहेरा) क समीप भरहुत का स्तूप निर्मित हुआ था और यह स्तूप ई.पू. दूसरी या प्रथम शती का है। इतिहासकारों ने इसे शुंग काल का माना है। भरहुत के स्तूप के पूर्वी तोरण पर वाच्छिपुत धनभूति' का उल्लेख है। पुनः, अभिलेखों में सुगनं रजे' - ऐसा उल्लेख होने से शुंग काल में इसका होना सुनिश्चित है। अतः, उच्चैर्नागर शाखा का स्थापना काल (लगभग ई.पू. प्रथम शती) और इस नगर का सत्ताकाल समान ही है। इसे उच्चैर्नागर शाखा का उत्पत्ति स्थल मानने में काल- दृष्टि से कोई बाधा नहीं है। ऊँचेहरा (उच्चकल्पनगर) एक प्राचीन नगर था, इसमें अब कोई संदेह नहीं रह जाता। यह नगर वैशाली या पाटलीपुत्र से वाराणसी होकर भरुकच्छ को जाने वाले अथवा श्रावस्ती से कौशाम्बी होकर विदिशा, उज्जयिनी और भरुकच्छ जाने वाले मार्ग में स्थित है। इसी प्रकार वैशाली - पाटलिपुत्र से पद्मावती (पॅवाया), गोपाद्रि (ग्वालियर) होते हुए मथुरा जाने वाले मार्ग पर भी इसकी अवस्थिति थी। उस समय पाटलीपुत्र से गंगा और जमुना के दक्षिण से होकर जाने वाला मार्ग हीअधिक प्रचलित था, क्योंकि इससे बड़ी नदियाँ नहीं आती थीं, मार्ग पहाड़ी होने से कीचड़ आदि भी अधिक नहीं होताथा। जैन साधुप्रायः यही मार्गअपनाते थे। प्राचीन यात्रा मार्गों के आधार पर ऐसा प्रतीत होता है कि ऊँचानगर की अवस्थिति एक प्रमुख केन्द्र के रूप में थी। यहाँ से कौशाम्बी, प्रयाग, वाराणसी आदि के लिये मार्गथे। पाटलीपुत्र को गंगा-यमुना आदि बड़ी नदियों को बिना पार किये जो प्राचीन स्थल मार्ग था, उसके केन्द्र नगर के रूप में उच्चकल्प नगर (ऊँचानगर) की स्थिति सिद्ध होती है। यह एक ऐसा मार्गथा, जिसमें कहीं भी कोई बड़ी नदी नहीं आती थी, अतः सार्थ निरापद समझकर इसे ही अपनाते थे। प्राचीन काल से आज तक यह नगर धातुओं के मिश्रण के बर्तनों हेतु प्रसिद्ध रहा है। आज भी वहां कांसे के बर्तन सर्वाधिक मात्रा में बनते हैं। ऊँचेहरा का उच्चैर' शब्द से जो ध्वनि-साम्य है, वह भी हमें इसी निष्कर्ष के लिए बाध्य करता है कि उच्चैर्नागर शाखा की उत्पत्ति इसी क्षेत्र से हुई थी।
SR No.006191
Book TitleJain Sahityakash Ke Aalokit Nakshatra Prachin Jainacharya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith
Publication Year2016
Total Pages228
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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