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________________ 31 I - इतिहासकारों ने दसवीं सदी के बाद ही किया है। इतिहासकारों ने इस ऊँचागाँव किले का संबंध तोमर वंश के राजा अहिवरण से जोड़ा है, अतः इसकी अवस्थिति ईसा की पाँचवीं - छठवीं शती से पूर्व तो सिद्ध ही नहीं होती । यहाँ से मिले सिक्कों पर 'गोवितसबाराणये' - ऐसा उल्लेख है । स्वयं कनिंघम ने भी संभावना व्यक्त की है कि इन सिक्कों का संबंध वारणाव या वारणावत से रहा होगा । वारणावर्त्त का उल्लेख महाभारत में भी है, जहाँ पाण्डवों ने हस्तिनापुर से निकलकर विश्राम किया था तथा जहाँ उन्हें जिंदा जलाने के लिये कौरवों द्वारा लाक्षागृह का निर्माण करवाया गया था । बारणावा (बारणावत) मेरठ से 16 मील और बुलन्दशहर (प्राचीन नाम बरन) से 50 मील की दूरी पर हिंडोन और कृष्णा नदी के संगम पर स्थित है । मेरी दृष्टि में वह वारणावत वही है, जहाँ से जैनों का 'वारणगण' निकला था । 'वारणगण' का उल्लेख भी कल्पसूत्र स्थविरावली एवं मथुरा के अभिलेखों में उपलब्ध होता है । अतः, बारणाबत (वारणावर्त्त) का संबंध वारणगण से हो सकता है, न कि उच्चैर्नागरी शाखा से, to कोटिक की शाखा थी । अतः, अब हमें इस भ्रांति का निराकरण कर लेना चाहिए। उच्चैर्नागर शाखा का संबंध किसी भी स्थिति में बुलन्दशहर से नहीं हो सकता । यह सत्य है कि उच्चैर्नागर शाखा का संबंध किसी ऊँचानगर से ही हो सकता है। इस संदर्भ में हमने इससे मिलते-जुलते नामों की खोज प्रारंभ की है। हमें ऊँचाहार, ऊँचडीह, ऊँचीबस्ती, ऊँचौलिया, ऊँचाना, ऊँच्चेहरा आदि कुछ नाम प्राप्त हुए। हमें इन नामों में ऊँचाहार (उ. प्र.) और ऊँचेहरा (म.प्र.) - ये दो नाम अधिक निकट प्रतीत हुए। ऊँचाहार की संभावना भी इसलिये हमें उचित नहीं लगी कि उसकी प्राचीनता के संदर्भ में विशेष जानकारी उपलब्ध नहीं है, अतः हमने ऊँचेहरा को ही अपनी गवेषणा का विषय बनाना उचित समझा। ऊँचेहरा मध्यप्रदेश के सतना जिले में सतना रेडियो स्टेशन से 10 कि.मी. दक्षिण की ओर स्थित है। ऊँचेहरा से 7 कि.मी. उत्तर-पूर्व की ओर भरहुत का प्रसिद्ध स्तूप स्थित है। इससे इस स्थान की प्राचीनता का भी पता लग जाता है । वर्त्तमान ऊँचेहरा से लगभग 2 कि.मी. की दूरी पर पहाड़ के पठार पर यह प्राचीन नगर स्थित था, इसी से इसका ऊँचानगर नामकरण भी सार्थक सिद्ध होता है । वर्त्तमान में यह वीरान स्थल 'खोह' कहा जाता है । वहाँ के नगर निवासियों ने मुझे यह भी बताया कि पहले यह उच्चकल्पनगरी कहा जाता था और यहाँ से बहुत सी पुरातात्त्विक सामग्री भी निकली थी। यहाँ से गुप्त काल अर्थात् ईसा की पाँचवीं शती के राजाओं के कई दानपत्र प्राप्त हुए हैं। इन ताम्र- दानपत्रों में उच्चकल्प (उच्छकल्प) का
SR No.006191
Book TitleJain Sahityakash Ke Aalokit Nakshatra Prachin Jainacharya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith
Publication Year2016
Total Pages228
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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