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________________ 27 2 - आचार्य उमास्वाति . (ईस्वी सन की 3री शती) तत्त्वार्थसूत्र के प्रणेता उमास्वाति ने तत्त्वार्थभाष्य की अंतिम प्रशस्ति में अपने को उच्चैर्नागर शाखा का कहा है तथा अपना जन्मस्थान न्यग्रोधिका बताया है, अतः उच्चैर्नागर शाखा के उत्पत्ति-स्थल एवं उमास्वाति के जन्मस्थल का अभिज्ञान (पहचान) करना आवश्यक है। उच्चैर्नागर शाखा का उल्लेख न केवल तत्त्वार्थभाष्य में उपलब्ध होता है, अपितु श्वेताम्बर परंपरा में मान्य कल्पसूत्र की स्थविरावली में तथा मथुरा के अभिलेखों में भी उपलब्ध होता है। कल्पसूत्र स्थविरावली के अनुसार उच्चैर्नागर शाखा कोटिकगण की एक शाखा थी। मथुरा के 20 अभिलेखों में कोटिगण तथा नौ अभिलेखों में उच्चैर्नागर शाखा का उल्लेख मिलता है। कोटिकगण कोटिवर्ष नगर के निवासी आर्य सुस्थित से निकला था । श्वेताम्बर परंपरा में कोटिकगण की उत्पत्ति का कारण सूरिमंत्र का एक करोड़ बार जप करना माना जाता है, किन्तु यह बात मात्र अनुश्रुति रूप ही है। कोटिवर्ष की पहचान पुरातत्त्वविदों ने उत्तर बंगाल के फरीदपुर से की है। इसी कोटिकगण के आर्य शांतिश्रेणिक से उच्चैर्नागर शाखा के निकलने का उल्लेख है। कल्पसूत्र के गण, कुल और शाखाओं का संबंध व्यक्तियों या स्थानों (नगरों) से रहा है, जैसे- वारणगण वारणावर्त से तथा कोटिकगण कोटिवर्ष से संबंधित था, यद्यपि कुछ गण व्यक्तियों से भी संबंधित थे। शाखाओं में कौशम्बिया, कोडम्बानी, चन्द्रनागरी, माध्यमिका, सौराष्टिका, उच्चै गर आदि शाखाएँ मुख्यतया नगरों से संबंधित रही हैं। उमास्वाति का जन्म स्थान नागोद (म.प्र.) उमास्वाति ने अपना जन्मस्थान 'न्यग्रोधिका' बताया है। इस संबंध में भी विद्वानों ने अनेक प्रकार के अनुमान किये हैं। चूंकि उमास्वाति ने तत्त्वार्थभाष्य की रचना कुसुमपुर (पटना) से की थी, अतः अधिकांश लोगों ने उमास्वाति के जन्मस्थल की पहचान उसी क्षेत्र से करने का प्रयास किया है। न्यग्रोध को वट भी कहा जाता है। इस आधार पर पहाड़पुर के निकट बटगोहली, जहाँ से पंचस्तूपान्वय का एक ताम्रलेख मिला है, से भी इसका समीकरण करने का प्रयास किया गया है। मेरी दृष्टि में ये धारणाएँ समुचित नहीं हैं। उच्चैर्नागर शाखा, ऊँचेहरा से संबंधित थी, उसमें उमास्वाति के दीक्षित होने का अर्थ यही है कि वे उसके उत्पत्ति स्थल के निकट ही कहीं
SR No.006191
Book TitleJain Sahityakash Ke Aalokit Nakshatra Prachin Jainacharya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith
Publication Year2016
Total Pages228
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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