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________________ 23 13. सर्वसंघाधिपो जातो विसषाचार्यसंज्ञक॥ अनेन सहसंघोऽपिसमस्तो गुरुवाक्यतः। दक्षिणापथदेशस्थपुन्नाटविषयं ययौ॥40॥ -बृहत्कथाकोश, कथानक संख्या 131, श्लोक 38-40. 14. कहाकोसु, कर्ता-श्रीचन्द्र, प्रकाशक-प्राकृत टेक्स्ट सोसायटी, अहमदाबाद 1966 ई., संधि47, कडषक 10. 15. पुण्यास्त्रव कथाकोश, सम्पा. - रामचन्द्र मुमुक्षु, प्रकाशक - भारतवर्षीय अनेकांत विद्वत्परिषद 1998,पृ. 225-227, कथाक्रमांक 38. 16. बारहसहस मुणिहिं सहिउभद्दबाहुरिसि चल्लियउ। जंतउजंतउ कयवयदिणहिं अडविहिं पत्तु गुणल्लियउ॥ -भद्रबाहु, चाणक्यचन्द्रगुप्त कथानक, रइधू,सं. - डॉ.राजारामजैन, 13 पृ. 26. 17. देखें - भद्रबाहुचरित्र, रत्ननन्दी, परिच्छेद 3,श्लोक 47 से 53, प्रकाशक - दिगम्बर जैन पुस्तकालय, सूरत, 1966 ई. 18. भद्रबाहु-चाणक्य-चन्द्रगुप्त कथानक, सम्पा. - राजाराम जैन, प्रस्तावना, 9-11. 19. सोवियचोद्दसपुवी बारसवासाइंजोगपडिवन्नो। देज्जन वदेजवावायणं ति वाहिप्पऊताव॥ -तित्थोगाली, पइन्नयं 725, पइण्णयसुत्ताई, सं. मुनि पुण्यविजय, महावीर जैन विद्यालय, बम्बई, 1984 ई. 20. महापाणंणपविठ्ठो मि, इयाणिं पविठ्ठो मि, तो न जाति वायणं दातुं ...। -आवश्यकचूर्णि, भाग-2, पत्रांक 187. 21. महावंस (10.65, 33. 43-79) के अनुसार श्रीलंका में बौद्धधर्म पहुँचने के पूर्व जैन धर्म का अस्तित्वथा। पाण्डुकाभय ने वहाँ जोनिव और गिरि नामक निम्रन्थों के लिए चैत्य बनवाये थे। बाद में मट्टगामिणी अभय ने निर्ग्रन्थों का विनाश कर दिया।
SR No.006191
Book TitleJain Sahityakash Ke Aalokit Nakshatra Prachin Jainacharya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith
Publication Year2016
Total Pages228
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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