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विवेचित याअध्यापित है। प्रोक्तानि का अर्थ रचितानि नहीं हो सकता है- इस बात की पुष्टि शाकटायन व्याकरण के प्रोक्ते (3/1/69), हेम व्याकरण के 'तेन प्रोक्ते' (6/3/18) तथा पाणिनीय व्याकरण के तेन प्रोक्तं (4/3/10) सूत्रों की व्याख्या से भी होती है।
पुनः, भाषाशैली एवं विषयवस्तु की दृष्टि से विचार करने पर भी उत्तराध्ययन के सभी अध्ययनों को एक काल की रचना नहीं माना जा सकता है। इसमें एक ओर प्राचीन अर्द्धमागधी प्राकृत के शब्दों का प्रयोग मिलता है, तो दूसरी ओर अर्वाचीन महाराष्टी प्राकृत के शब्दभी उपलब्ध होते हैं। शैली की दृष्टि से भी कुछ अध्ययन व्यास शैली में लिखे गये हैं, तो कुछ समास शैली में हैं, अतः ये सब तथ्य भी उत्तराध्ययन के एक कर्तृक मानने में विसंगति उत्पन्न करते हैं।
फिर भी, इस आधार पर इतना तो माना ही जा सकता है कि उत्तराध्ययन के संकलनकर्ता संभवतः भद्रबाहु रहे हों । यह स्पष्ट है कि नियुक्ति में उत्तराध्ययन के 36 अध्ययनों पर नियुक्ति लिखी गई है, अतः नियुक्तिकार के समक्ष छत्तीस अध्ययनरूप उत्तराध्ययन उपस्थित था। यदि नियुक्तियों के कर्ता श्रुतकेवली भद्रबाहु (प्रथम) को मानते हैं, तो हमें यह भी मानना होगा कि उत्तराध्ययन का संकलन उसके पूर्व हो चुका था और यह संभव है कि उसके संकलनकर्ता भी वे स्वयं हों, क्योंकि जिस प्रकार उन्होंने छेदसूत्रों की रचना कर उन पर नियुक्ति लिखी, उसी प्रकार उन्होंने उत्तराध्ययन का संकलन करके उस पर नियुक्ति लिखी हो, यद्यपि उन्हें नियुक्ति का कर्ता मानना विवादास्पद है। दूसरे, यदि नियुक्ति के कर्ता के रूप में गौतमगोत्रीय आर्यभद्र अथवा अन्य विद्वानों के मतानुसार भद्रबाहु (द्वितीय) को माना जाये, तो भी यह मानने में कोई बाधा नहीं है कि उत्तराध्ययन के संकलनकर्त्तापाइण्णगोत्रीय आर्य भद्रबाहु रहे हों।
उत्तराध्ययनसूत्र के इकतीसवें अध्ययन की सत्रहवीं गाथा में दशादि के छब्बीस अध्ययनों का उल्लेख है, अतः उत्तराध्ययन के संकलन को इन छेदसूत्रों से परवर्ती मानना होगा। इन छेदसूत्रों के रचयिता स्वयं प्राच्य गोत्रीय भद्रबाहु स्वयं ही हैं, अतः संभव है कि उन्होंने इन छेदसूत्रों की रचना के बाद उत्तराध्ययन का संकलन किया हो। अतः, इससे उत्तराध्ययन के संकलनकर्ता भद्रबाहु प्रथम को मानने में कोई बाधा नहीं आती है।