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________________ 19 आचार्यभद्रबाहु का कृतित्व जहाँ तक श्रुतकेवली भद्रबाहु की कृतियों का प्रश्न है, उनको दशाश्रुतस्कन्ध, कल्प' (बृहत्कल्प) और व्यवहार नामक छेदसूत्रों का कर्ता माना गया है।" दशाश्रुतस्कन्ध नियुक्ति और अन्य स्त्रोतों से इसकी पुष्टि होती है। कुछ लोगों ने इन्हें निशीथ का कर्ता भी माना है। इस संबंध में मेरा चिंतन यह है कि न केवल निशीथ, अपितु संपूर्ण आचारचूला, जिसका एक भाग निशीथ रहा है, उसके कर्ता श्री श्रुतकेवलीभद्रबाहु हैं, क्योंकि उस काल तक निशीथ आचारचूला काही एकभागथा और उससे उसका पृथक्करण नहीं हुआथा। इसके अतिरिक्त, भद्रबाहु के कृतित्व के संबंध में जो नई बात मुझे ज्ञात हुई, वह यह है कि उत्तराध्ययनसूत्र के संकलनकर्ता भी श्रुतकेवली भद्रबाहु हैं। उत्तराध्ययन के अध्ययन अंगआगमों एवं पूर्वो से उद्धृत हैं। इस प्रकार, उत्तराध्ययन एक कर्तृक नहीं होकर एक संग्रह ग्रंथ ही सिद्ध होता है, अतः इसका कर्ता कौन है, यह प्रश्न निरर्थक है। फिर भी, यह प्रश्न तो बना ही रहता है कि इसका संग्रह या संकलन किसने किया? प्राचीनकाल में संग्राहक या संकलनकर्ता कहीं भी अपना नाम निर्देश नहीं करते थे, अतः इस संबंध में एक संभावना यह व्यक्त की जा सकती है कि उत्तराध्ययन के अध्ययन पूर्वो से उद्धृत हैं, अतः उसके संकलनकर्ता कोई पूर्वधर आचार्य रहे होंगे। पूर्वधरों में भद्रबाहु का नाम महत्वपूर्ण है, अतः भद्रबाहु उत्तराध्ययन के संकलनकर्ता है, यह संभावना व्यक्त की जा सकती है। इस संबंध में एक प्रमाण आचार्य आत्मारामजी ने अपनी उत्तराध्ययन की भूमिका में दिया है। वे लिखते हैं कि 'भद्रबाहुना प्रोक्तानि भद्रबाह्वानि उत्तराध्ययनानि' अर्थात भद्रबाहु द्वारा प्रोक्त होने से उत्तराध्ययनों को भद्रबाहव भी कहा जाता है । इस आधार पर कई विद्वानों ने उत्तराध्ययन के संकलनकर्ता के रूप में भद्रबाहु को मानने की संभावना व्यक्त की है। आत्मारामजी म.सा. ने भी उत्तराध्ययन की भूमिका में यह निर्देश तो किया है कि उत्तराध्ययन का एक नाम भद्रबाहव' भी है, किन्तु उत्तराध्ययन का यह नाम कहाँ उपलब्ध होता है, इसका उल्लेख उन्होंने नहीं किया है, किन्तु उनके अनुसार उपरोक्त पंक्ति के आधार परभद्रबाहु को उत्तराध्ययन का रचयिता मानने का कोई औचित्य नहीं है, कि उपर्युक्त कथन में भद्रबाहुना के साथ प्रोक्तानि क्रियापद प्रयुक्त हुआ है, जिसकी व्युत्पत्ति प्रकर्षण उक्तानि प्रोक्तानि' है, अर्थात् विशेष रूप से व्याख्यात,
SR No.006191
Book TitleJain Sahityakash Ke Aalokit Nakshatra Prachin Jainacharya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith
Publication Year2016
Total Pages228
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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