________________
18
और श्वेताम्बर, दिगम्बर और यापनीयों के बीच भेद रेखा स्पष्ट हो चुकी थी ।
इस प्रकार, आचार्य हस्तिमलजी द्वारा उल्लेखित दिगम्बर परंपरा में विभिन्न कालों में हुए पाँच भद्रबाहु में से चार का उल्लेख श्वेताम्बर स्त्रोतों में प्राच्यगोत्रीय भद्रबाहु, भद्रगुप्त, गौतम गोत्रीय आर्यभद्र और नैमित्तिक वराहमिहिर के भाई भद्रबाहु नाम से प्राप्त होता है । इन चारों की दिगम्बर स्त्रोतों से प्राप्त नामों से कालिक समरूपता भी है।
42
ज्ञातव्य है, श्वेताम्बर परंपरा में तित्थोगाली पइण्णा एवं चूर्णिकाल तक भद्रबाहु के जीवनवृत्त में उनका पूर्वधर होना, द्वादशवर्षीय दुष्काल के पश्चात् पाटलिपुत्र में हुई प्रथम आगम वाचना, उसमें भद्रबाहु की अनुपस्थिति, संघ द्वारा पूर्वों की वाचना देने का अनुरोध, वृद्धावस्था एवं महाप्राण ध्यान साधना में व्यस्तता के कारण भद्रबाहु द्वारा अपनी असमर्थता या अन्यमनस्कता व्यक्त करना, संघ द्वारा संभोग - विच्छेद की स्थिति देखकर संघ का अनुरोध स्वीकार कर स्थूलिभद्र आदि को वाचना देना, स्थूलभद्र द्वारा सिंह रूप बनाकर विद्या का प्रदर्शन करना, भद्रबाहु द्वारा आगे वाचना देने से इंकार, विशेष अनुरोध पर मात्र मूल की वाचना देना आदि घटनाएँ वर्णित हैं । वहीं नंदराज द्वारा मंत्री शकडाल के साथ दुर्व्यवहार, स्थूलभद्र से वैराग्य प्राप्त कर दीक्षित होना आदि घटनाएँ उल्लेखित हैं, 12 किन्तु इनमें कहीं भी वराहमिहिर का उल्लेख नहीं है । 'गच्छाचार पन्ना की दोघट्टीवृत्ति से लेकर प्रबंध - चिंतामणि, प्रबंधकोश आदि के भद्रबाहुचरित्र में मात्र वराहमिहिर संबंधी कथानक ही वर्णित है, किन्तु ज्ञातव्य है कि ये सभी रचनाएँ ईसा की 11वीं शती के बाद की हैं। इनमें भद्रबाहु के साथ वराहमिहिर का दीक्षित होना, फिर श्रमण पर्याय का त्याग करके अपने द्वारा 12 वर्ष तक सूर्य विमान में रहकर ज्योतिष चक्र की जानकारी प्राप्त करने का मिथ्या प्रवाद फैलाना, राजपुरोहित बन जाना, वराहमिहिर को पुत्र की प्राप्ति होना, उस पुत्र के दीर्घजीवी होने की भविष्यवाणी करना, इसी समय उस पुत्र के बारे में भद्रबाहु की भविष्यवाणी सत्य सिद्ध होने के उल्लेख हैं । इन प्रबंधों के द्वारा इन्हें चतुर्दश पूर्वधर और नियुक्ति का कर्त्ता भी कहा गया है। इस प्रकार, श्वेताम्बर एवं दिगम्बर स्त्रोतों में श्रुतकेवली भद्रबाहु और नैमित्तिक भद्रबाहु के कथानकों को मिला दिया गया है। मात्र यही नहीं, इन दोनों के मध्य में हुए आर्यभद्रगुप्त और गौतमगोत्रीय आर्यभट्ट नामक आचार्यों के कथानक एवं कृतित्व भी इनमें घुल मिल गये हैं, जिनकी सम्यक् समीक्षा करके उनका विश्लेषण करना अपेक्षित है ।