SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 23
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 17 इसकी पुष्टि श्वेताम्बर स्रोतों से नहीं होती है। (3), नन्दिसंघ बलात्कार गण की पट्टावली में उल्लेखित वीर निर्वाण सं. 609 से 631 के मध्य आचार्य पद पर रहे हुए आचार्य भद्रबाहु के शिष्य गुप्तिगुप्त थे। आचार्य हस्तिमलजी के अनुसार इन्हीं भद्रबाहु के कथानक को थोड़ा अतिरंजित करके ही श्रुतकेवली भद्रबाहु के साथ जोड़ दिया गया है। मेरी दृष्टि में वस्तुतः ये शिवभूति के शिष्य भद्रगुप्त थे। इनके काल में वीर निर्वाण संवत् 606 या 609 में उत्तर भारत के निर्ग्रन्थसंघ में पुन: अचेलकत्व की प्रतिष्ठा हुई एवंबोटिक यायापनीय परंपरा का विकासभी इसी काल में हुआ। नन्दीसूत्र एवं कल्पसूत्र की स्थविरावली में इनका उल्लेख शिवभूति के शिष्य के रूप में है। श्वेताम्बर पट्टावलियों में शिष्य श्रीगुप्त का उल्लेख है। संभव है कि श्रीगुप्त ही गुप्तिगुप्त हों। (4) निमितज्ञ भद्रबाहु दिगंबर परंपरा के अनुसार ग्यारह अंग के विच्छेद के पश्चात् हुए हैं। श्रुतस्कन्ध के कर्ता के अनुसार इनका काल विक्रम की तीसरी शताब्दी माना गया है। मेरी दृष्टि में ये गौतमगोत्रीय आर्यभद्र हैं, जो नियुक्ति के कर्ता तथा आर्य विष्णु के प्रशिष्य और आर्य कालक के शिष्य हैं तथा स्थविरवृद्ध के गुरु और सिद्धसेन दिवाकर के दादागुरु हैं । यही काल स्कन्दिल की माथुरी एवं वल्लभी की नागार्जुन की वाचना का है, क्योंकि आगमों की माथुरी वाचना एवं नियुक्तियाँ यापनीयों को मान्यरही हैं। (5) वीर निर्वाण के 1000 वर्ष पश्चात् हुए भद्रबाहु दिगम्बर परम्परा के अनुसार प्रथम अंग के धारक थे । मेरी दृष्टि में ये श्वेताम्बर प्रबंधों में उल्लेखित वराहमिहिर के भाई भद्रबाहु हैं। वराहमिहिर की पंच सिद्धान्तिका में उसका रचनाकाल शक सं. 427 बताया है, इसमें 135 वर्ष जोड़ने पर विक्रम सं. 562 आता है। इसमें 470 जोड़ने पर वीर निर्वाण सं. 1032 आता है। यही कारण है कि इसका उल्लेख कल्पसूत्र स्थविरावली में नहीं है। यदि हेमचन्द्र की मान्यता के आधार पर इसमें 60 वर्ष कम भी करें, तो भी इनका काल वीर निर्वाणसं. 972 आता है, जो इस वाचना के मात्र 8 वर्ष पूर्व है, अतः कल्पसूत्र स्थविरावली में इनका उल्लेख होने का प्रश्न ही नहीं उठता है। इनके समय में श्वेताम्बर सम्प्रदाय एक स्वतन्त्र सम्प्रदाय के रूप में अस्तित्व में आ गया था
SR No.006191
Book TitleJain Sahityakash Ke Aalokit Nakshatra Prachin Jainacharya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith
Publication Year2016
Total Pages228
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy