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घटनाक्रम जोड़े जाते रहे । उनके अनुसार, दिगम्बर परंपरा के विभिन्न ग्रंथों के अध्ययन से यह तथ्य सामने आता है कि विभिन्न कालों में भद्रबाहु नाम के पाँच आचार्य हुए हैं। उन्होंने कालक्रम के अनुसार इनका विवरण इस प्रकार दिया है - 1. श्रुतकेवली भद्रबाहु (वीर निर्वाण सं. 162, अर्थात् ई. पू. तीसरी शती), 2. 29वें पट्टधर भद्रबाहु ( वीर निर्वाण सं. 492-515 अर्थात् ईसा की प्रथम शती), 3. नन्दिसंघ बलात्कारगण की पट्टावली में उल्लेखित भद्रबाहु (वीर निर्वाण सं. 609-631 अर्थात् ईसा की दूसरी शती), 4. निमितज्ञ भद्रबाहु ( ईसा की तीसरी शती, वीर निर्वाण आठवींनौवीं शती), 5. प्रथम अंगधारी भद्रबाहु (वीर निर्वाण संवत् 1000 के पश्चात् ) । यहाँ इन पाँच भद्रबाहु नामक आचार्यों की संगति श्वेताम्बर परंपरा से कैसे संभव है - यह विचार करना अपेक्षित है
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(1) अंतिम श्रुतकेवली भद्रबाहु जिनका स्वर्गवास वीर निर्वाण सं. 162 में हुआ, ये 14 पूर्व व 12 अंगों के ज्ञाता थे । श्वेताम्बर परंपरानुसार ये सातवें और दिगम्बर परंपरानुसार ये आठवें पट्टधर थे। ये सचेल-अचेल दोनों परंपरा को मान्य रहे हैं। इनके समय में उत्सर्ग और अपवाद मार्ग या स्थविरकल्प और जिनकल्प की व्यवस्थाएँ पृथक्-पृथक् हुई। ये छेदसूत्रों के कर्त्ता हैं। छेदसूत्रों में उत्सर्ग और अपवाद मार्गों तथा जिनकल्प और स्थविरकल्प की चर्चा है। इससे फलित होता है कि उनके काल में वस्त्र - पात्र व्यवस्था का प्रचलन था । पुनः, यदि भद्रबाहु (प्रथम) को उत्तराध्ययन का संकलनकर्त्ता माना जाये, तो उसमें भी छेदसूत्रों के तथा सचेल-अचेल परंपराओं के उल्लेख हैं । पुनः, विद्वानों ने पूर्वों को पार्श्वापत्य परंपरा से सम्बद्ध माना है। चूंकि छेदसूत्रों का आधार पूर्व थे और पूर्व पार्श्वापत्य परंपरा के आचार मार्ग का प्रतिपादन करते थे, अतः छेदसूत्रों में वस्त्र-पात्र के उल्लेख पार्श्वपत्यों से संबंधित थे, जो आगे चलकर महावीर की परंपरा में मान्य हो गये। इनका काल ई.पू. तीसरी शती है ।
(2) 29वें पट्टधर आचार्य भद्रबाहु (अपरनाम - यशोबाहु), जो आठ अंगों के ज्ञाता थे, इनका काल वीर निर्वाण सं. 492 से 515 (ई. पू. प्रथम शती) माना गया है। आचार्य हस्तिमलजी के इस उल्लेख का आधार संभवतः कोई दिगम्बर पट्टावली होगी। हरिवंशपुराण में यशोबाहु को महावीर का 27वाँ पट्ट बताया गया है । इस काल में कोई भद्रबाहु या यशोबाहु नामक आचार्य हुए हैं,