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________________ मेरी दृष्टि में दिगम्बर परंपरा की पट्टावली में उल्लेखित आर्य नक्षत्र और आर्य विष्णुभी वे ही हैं, जिनका उल्लेख कल्पसूत्र एवं नंदीसूत्र की स्थविरावली में मिलता है।" इसी प्रकार, दिगम्बर परंपरा के भद्रबाहु कथानकों में उल्लेखित स्थूलभद्र, रामिल्ल और स्थूलवृद्ध (स्थूलाचार्य) किसी एक भद्रबाहु से संबंधित न होकर पृथक्पृथक् भद्र नामक आचार्यों से हैं। स्थूलभद्र का संबंध श्रुतकेवली भद्रबाहु से रहा हैसंभवतः इनके द्वारा जिनकल्प के स्थान पर स्थविर कल्प का विकास हुआ हो। हो सकता है कि रामिल्ल का संबंध भद्रान्वय के संस्थापक आर्य भद्रगुप्त से हो और ये रामिल्लाचार्य विदिशा में स्थापित जिनमूर्तियों में उल्लेखित रामगुप्त हों, इनसे ही आगे चलकरं भद्रान्वय और यापनीय सम्प्रदाय का विकास हुआ है, जबकि स्थूलवृद्ध वस्तुतः स्थविर वृद्ध हों, जिनके शिष्यों से वर्तमान श्वेताम्बर परंपरा का विकास हुआ। ज्ञातव्य है, कल्पसूत्र स्थविरावली के अनुसार गौतमगोत्रीय आर्यभद्रस्थविरवृद्ध के गुरु हैं । इस प्रकार, ये तीनों भद्र नामक तीन अलग-अलग आचार्यों से संबंद्ध रहे, जिन्हें श्रुतकेवलीआर्यभद्रबाहु की कथा के साथगड्ड-मड्ड कर दिया गयाहै। मुझे ऐसा लगता है कि परवर्ती दिगम्बर आचार्यों ने जो भद्रबाहु कथानक तैयार किये, उनमें अनुश्रुतियों से प्राप्त इन भद्र नामक विभिन्न आचार्यों के कथानकों को आपस में मिला दिया और श्वेताम्बर को अति निम्न स्तरीय या भ्रष्ट दिखाने के लिये घटनाक्रमों की स्वैर कल्पना से रचना कर दी। यदि उस युग के श्वेताम्बर मुनि इतने निम्न एवं भ्रष्ट आचरणवाले होते, तो हलसी के उस अभिलेख में (जिसमें निर्ग्रन्थों एवं श्वेताम्बरों का साथ-साथ उल्लेख हुआ है) श्वेताम्बरों के लिये- अर्हत्प्रोक्त सद्धर्मकरणपरस्टा श्वेतपट्टमहाश्रमण संघ जैसी आदरसूचक शब्दावली का प्रयोग नहीं होता।"ज्ञातव्य है कि यह अभिलेख दक्षिणभारत के उत्तरी कर्नाटक के उस क्षेत्र का है, जहाँ निर्ग्रन्थ दिगम्बर सम्प्रदाय एवं यापनीय सम्प्रदाय अधिक प्रभावशाली था। वहाँ राजा के द्वारा ई. सन् की पाँचवीं शती के श्वेताम्बरों के लिये महातपस्वी जैसे शब्दों के प्रयोग से यह सिद्ध हो जाता है कि उस युग के श्वेताम्बर मुनि इतने आचारहीन नहीं थे, जैसा कि इनभद्रबाहु चरित्रों में उन्हें चित्रित किया गया है। __ आचार्य हस्तीमलजी ने जैन धर्म के मौलिक इतिहास, भाग 2, पृष्ठ 357 पर इस तथ्य पर प्रकाश डाला है कि परवर्तीकाल में रचित दिगम्बर परंपरा के इन भद्रबाहु चरित्रों में किस प्रकार स्वैर कल्पनाओं द्वारा दूसरे सम्प्रदायों को नीचा दिखाने के लिये
SR No.006191
Book TitleJain Sahityakash Ke Aalokit Nakshatra Prachin Jainacharya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith
Publication Year2016
Total Pages228
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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