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(7) इसी प्रकार, श्वेताम्बरों के उत्पत्ति से संबंधित घटनाक्रम में प्रत्येक लेखक ने
अपनी स्वैर कल्पना का प्रयोग किया है, अतः उनमें भी अनेक विप्रतिपत्तियाँ
दिखाई देती हैं, जिनके संकेतपूर्व में किये गये हैं। (8) भद्रबाहु के स्वर्गवास स्थल के संबंध में भी इन कथानकों में मतभेद है। किसी ने
उसे भाद्रपद देशमाना, तो किसी ने दक्षिणपथ की गुहाटवी माना है। आश्चर्य है कि 16वीं शती में हुए रत्ननंदी तक किसी ने भी उसे श्रवणबेलगोला नहीं बताया है।
इस प्रकार की अनेक विप्रतिपत्तियों के कारण दिगंबर परंपरा में प्रचलित भद्रबाहु संबंधी इन कथानकों की ऐतिहासिक प्रामाणिकता पर प्रश्नचिह्न लग जाता है, अतः उनमें निहित तथ्यों की ऐतिहासिक दृष्टि से गहन समीक्षाअपेक्षित है।
दिगम्बर परंपरा में वर्णित भद्रबाहुचरित्र संबंधी कथानकों में उत्तर भारत के द्वादशवर्षीय दुष्काल, उनके शिष्य विशाखाचार्य के दक्षिण गमन, जिनकल्प और स्थविरकल्प के विभाजन तथा श्वेताम्बर एवं यापनीय सम्प्रदायों के उद्भव के कथानक ही विस्तार से वर्णित हैं। मेरी दृष्टि में इन सबमें सत्यांश इतना ही है कि श्रुतकेवली भद्रबाहु के समय मगध में दुष्काल अथवा राजनीतिक अस्थिरता की स्थिति रही है, फलतः उनकी शिष्य परंपरा ने दक्षिण में प्रवास किया हो- यह भी सत्य है कि हलसी (धारवाड़) के पाँचवी शती के अभिलेखों में श्वेतपट्ट, यापनीय, कूर्चक एवं निर्ग्रन्थ सम्प्रदायों के जो उल्लेख हैं, उनमें निर्ग्रन्थ सम्प्रदाय संभवतः श्रुतकेवली भद्रबाहु की शिष्य परंपरा से संबंधित रहा है, जबकि यापनीय सम्प्रदाय, जो क्रमशः भद्रान्वय (तीसरी शती) एवं मूलसंघ (चतुर्थ शती) के नामों से अभिहित होता हुआ हलसी (पाँचवी शती) में यापनीय सम्प्रदाय के नाम से ही अभिहित हुआ”-उसका संबंध भी भद्र नामक आचार्य से रहा है, फिर वे चाहे शिवभूति के शिष्य और आर्य नक्षत्र के गुरु आर्यभद्रगुप्त (ई. दूसरी शती का पूर्वार्द्ध) हों अथवा उनकी शिष्य परंपरा में हुए गौतम गोत्रीय आर्यभद्र (ई. तीसरी का पूर्वार्द्ध), जिनके नाम से भद्रान्वय चला और जो नियुक्तियों के कर्ता हैं तथा जो आर्य विष्णु के प्रशिष्य आर्य कालक के शिष्य तथा स्थविर वृद्ध के गुरु और स्कन्दिल एवं सिद्धसेन दिवाकर के प्रगुरु रहे हैं, ये सभी यापनीय एवं श्वेताम्बर दोनों के पूर्वज रहे हैं- यही कारण है कि ये दक्षिण भारत में विकसित अचेलकत्व की समर्थक दिगम्बर और यापनीय परंपरा में भी मान्य रहे हैं।