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स्थूलाचार्य की यह कथा गढ़ी है। ज्ञातव्य है कि स्थापनाचार्य के रूप में पाँच कोडिया या काष्ठ पट्टिका रखने की परंपरा श्वेताम्बरों में है। स्थापनाचार्य का उल्लेख तो भगवती आराधना में भी मिलता है। भद्रबाहु के जीवनवृत्त में विप्रतिपत्तियाँ
इन कथानकों की स्वैरकल्पनाओं के जोड़ने से न केवल ऐतिहासिक प्रामाणिकता खण्डित हुई, अपितु इनकी पारस्परिक विसंगतियाँ भी बढ़ती गईं । इस संबंध में मैं अपनी ओर से कुछ न कहकर आचार्य हस्तीमलजी एवं डॉ. राजारामजी" के मन्तव्यों के आधार पर कुछ विसंगतियों को प्रस्तुत कर रहा हूँ(1) द्वादशवर्षीय दुष्काल कहाँ पड़ा, इस संबंध में मतैक्य नहीं हैं। हरिषेण, देवसेन
एवं रत्ननंदी ने उज्जयिनी में बताया, तो रइधू ने उसे मगध में कहा और भावसेन
ने उसे सिन्धु-सौवीर देश में बताया। (2) भद्रबाहु दक्षिणापथ गये अथवा नहीं - इस संबंध में भी मतैक्य नहीं हैं। हरिषेण,
देवसेन आदि ने उन्हें अवन्ती प्रदेश में रहने का उल्लेख किया, तो रइधू ने उन्हें
पाटलिपुत्र से दक्षिण जाने का संकेत किया। (3) हरिषेण ने चन्द्रगुप्त मुनि को ही विशाखाचार्य बताया है, जबकि देवसेन और
रत्नंदीने चंद्रगुप्त मुनि और विशाखाचार्य को अलग-अलग माना है। (4) श्वेताम्बरमत की उत्पत्ति के प्रसंगमें जहाँ देवसेन नेशान्त्याचार्य के शिष्य जिनचन्द्र
काउल्लेख किया, वहाँ अन्य सभीने स्थूलवृद्ध के शिष्यों का उल्लेख किया। (5) जहाँ देवसेन ने श्वेतांबर मत की उत्पत्ति विक्रम संवत् 136 अर्थात् वीर निर्वाण
सं. 606 में मानी, वहाँ अन्यों ने उसे श्रुतकेवली भद्रबाहु के साथ जोड़कर उसे
बीरनिर्वाणसंवत् 162 के पूर्व माना। (6) भाबसेन ने चंद्रगुप्त के मुनि होने का कोई उल्लेख नहीं किया, जबकि अन्यों ने
उनके मुनि होने का उल्लेख किया है, किन्तु रइधू ने इसे चन्द्रगुप्त मौर्य (प्रथम) के स्थान पर उसके पौत्र अशोक काभीपौत्र निरूपित किया है, जबकि कालिक दृष्टि से श्रुतकेवलीभद्रबाहु और इस अशोक के पौत्र चंद्रगुप्त में कोई संगति नहीं है। पुनः, अशोक के पौत्र का नाम चंद्रगुप्त था, इसकी ऐतिहासिक आधार पर कोई पुष्टि नहीं होती है।