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अंत में कम्बलतीर्थ से सावलीपत्तन में यापनीय संघ की उत्पत्ति दिखाई है, जबकि ऐतिहासिक दृष्टि से सत्य यह है कि भद्रबाहु के काल में जो मुनिसंघ दक्षिण में चला गया, उसे वहाँ के जलवायु के कारण नग्न रहने में विशेष कठिनाई नहीं हुई, किन्तु जो मुनिसंघ उत्तर में रहा, उसे उत्तर-पश्चिम में जलवायु की प्रतिकूलता के कारण नग्न रहते हुए भी कम्बल एवं पात्रादि स्वीकार करना पड़े तथा इसी कारण जिनकल्प एवं स्थविरकल्प का विकास हुआ। इसे उत्सर्ग एवं अपवाद मार्ग भी कह सकते हैं ।
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शिवभूति और आर्यकृष्ण के विवाद के पश्चात् ईसा की दूसरी शती में दो वर्ग बने । एक वर्ग ने पूर्व में गृहीत कम्बल और पात्र को यथावत् रखा इससे ही कालांतर में वर्त्तमान श्वेतांबर संघ का विकास हुआ और दूसरा वर्ग, जिसने कम्बल और पात्र का त्याग करके उत्तर भारत में पुनः अचेलकत्व और पाणीपात्र की प्रतिष्ठा की थी और जिसे श्वेताम्बरों ने बोटिक कहा था, वही आगे चलकर दक्षिण में पहले मूलगण या मूलसंघ के नाम से और फिर यापनीय संघ के नाम से प्रसिद्ध हुआ। ज्ञातव्य है कि इस संबंध में विस्तृत सप्रमाण चर्चा मैंने जैन धर्म का यापनीय सम्प्रदाय नामक अपने ग्रंथ में की है। इच्छुक व्यक्ति उसे वहाँ देख सकते हैं। "
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ज्ञातव्य है कि इधू ने अपने भद्रबाहुचरित्र में कम्बल धारक अर्द्ध नग्न मुनियों से श्वेताम्बर परंपरा का उद्भव दिखाया, वह तो ठीक है, किन्तु उन्होंने श्वेताम्बरों से यापनीयों की उत्पत्ति दिखाई, वह युक्तिसंगत नहीं है, क्योंकि श्वेतांबर और यापनीयदोनों का विकास उत्तर भारत की स्थविरकल्पी मुनियों की परंपरा से हुआ है, जो नग्न रहते हुए भी कम्बल, पात्र एवं मुखवस्त्रिका रखते थे ।
लगभग 15वीं शती में रइधू ने और सोलहवीं शती में रत्ननंदी ने जो भद्रबाहु चरित्र रचे, उनमें पूर्व की अनुश्रुतियों में स्वैर कल्पना से भी नई-नई बातें जोड़ दी हैं, जैसे - मुनियों द्वारा रात्रि में भिक्षा लाकर दिन में खाना, भिखारियों द्वारा मुनि का पेट चीरकर उसमें से अन्न निकालकर खा जाना, रात्रि में भिक्षार्थ आये नग्न मुनि को देखकर स्त्री का गर्भपात हो जाना, स्थूलवृद्ध के शिष्यों द्वारा उनकी हत्या करना, उनका व्यन्तर के रूप में जन्म होना और अपने उन दुष्ट शिष्यों को कष्ट देना, शिष्यों द्वारा उनकी हड्डी या काष्ठ पट्टिका पर अंकित चरण की पूजा करना आदि ।” ज्ञातव्य है कि भावसेन ने श्वेताम्बरों में प्रचलित शांतिपाठ और शांति स्नात्र को देखकर शान्त्याचार्य की कथा गढ़ी, तो रइधू एवं रत्ननंदी ने श्वेताम्बरों में स्थापनाचार्य की परंपरा को देखकर