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________________ 203 सम्मान व्यक्त किया है। शाकटायन द्वारा स्त्रीमुक्ति और केवलिभुक्ति का समर्थन उनके यापनीय होने का सबसे बड़ा प्रमाण है । शाकटायन पाल्यकीर्त्ति यापनीय थे । इस संबंध में पंडित नाथूरामजी प्रेमी ने अपने ग्रंथ जैन साहित्य और इतिहास (पृ. 157-59 ) में निम्न तर्क प्रस्तुत किये हैं - (1) श्वेताम्बर आचार्य मलयगिरि (लगभग ईसा की 12वीं शती) ने अपनी नदीसूत्र की टीका में उन्हें 'यापनीय यतिग्रामाग्रणी' बताया है ।' मलयगिरि के इस उल्लेख से उनका यापनीय होना सिद्ध हो जाता है । पुनः, उनकी कृति शाकटायनव्याकरण से भी इसकी पुष्टि होती है, क्योंकि उसमें भी उन्हें ' यतिग्राम अग्रणी' - यह विरुद (विशेषण) दिया गया है। (2) शाकटायन पाल्यकीर्त्ति द्वारा रचित स्त्री-मुक्ति और केवलिभुक्ति- ये दोनों प्रकरण शाकटायन व्याकरण के साथ भारतीय ज्ञानपीठ से प्रकाशित भी हो चुके हैं । प्रथम प्रकरण में 45 श्लोकों में स्त्री मुक्ति का समर्थन है और दूसरे प्रकरण में 34 श्लोकों में केवली के द्वारा भोजन करने (कवलाहार) का समर्थन है । ज्ञातव्य है कि यापनीय सम्प्रदाय श्वेताम्बरों के समान ही स्त्री मुक्ति और केवलिभुक्ति को स्वीकार करता था । स्वयं हरिभद्र ने ललितविस्तरा में इन दोनों बातों के समर्थन में 'यापनीयतंत्र' को उद्धृत किया है। " अब यापनीय तंत्र अनुपलब्ध है। इन दोनों प्रकरणों में स्त्रीमुक्ति और केविलभुक्ति के समर्थन के साथ-साथ अचेलकत्व का भी समर्थन पाया जाता है। अतः, यह स्वतः सिद्ध है कि पाल्यकीर्त्ति शाकटायन यापनीय थे, क्योंकि यापनीय ही एकमात्र ऐसा सम्प्रदाय था, जो एक ओर अचेलकत्व का समर्थन करता है, तो दूसरी ओर स्त्रीमुक्ति और केविलभुक्ति का । ( 3 ) शाकटायन ने अपने शब्दानुशासन की स्वोपज्ञ अमोघवृत्ति में कालिकसूत्रों के साथ आवश्यक, छेदसूत्र, निर्युक्ति आदि के अध्ययन का भी उल्लेख किया है ।" पंडित नाथूरामजी प्रेमी" के अनुसार “इन ग्रंथों का जिस प्रकार से उल्लेख किया गया है, उससे ऐसा प्रतीत होता है कि उनके सम्प्रदाय में इन ग्रंथों के पठन-पाठन का प्रचार था । ये ग्रंथ दिगम्बर सम्प्रदाय को मान्य नहीं थे, जबकि यापनीय संघ इन ग्रंथों को मान्य करता था। हम पूर्व में भी इस तथ्य को स्पष्ट कर चुके हैं कि इन नामों से प्रचलित वर्त्तमान में श्वेताम्बर परंपरा में मान्य आगम ग्रंथ यापनीय संघ में मान्य रहे हैं। वट्टकेर, इंद्रनन्दी, अपराजितसूरि आदि अनेक यापनीय आचार्यों ने इनको
SR No.006191
Book TitleJain Sahityakash Ke Aalokit Nakshatra Prachin Jainacharya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith
Publication Year2016
Total Pages228
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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