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अंगों के अंश को सुरक्षित रखने का प्रयत्न किया और वह अंश आज हमें उपलब्ध हैंयह माना जाय तो इसमें क्या अनुचित है ?
एक बात का और भी स्पष्टीकरण जरूरी है कि दिगम्बरों में भी धवला के अनुसार सर्व अंगों का संपूर्ण रूप से विच्छेद माना नहीं गया है, किन्तु यह माना गया है कि पूर्व और अंग के एकदेशधर हुए हैं और उनकी परंपरा चली है। उस परंपरा के विच्छेद का भय तो प्रदर्शित किया है, किन्तु वह परंपरा विच्छिन्न हो गई, ऐसा स्पष्ट उल्लेख धवला या जयधवला में भी नहीं है । वहाँ स्पष्ट रूप से यह कहा गया है कि वीर निर्वाण के 683 वर्ष बाद भारतवर्ष में जितने भी आचार्य हुए हैं, वे सभी "सव्वेसिमंगपुव्वाणमेकदेसधारया जादा" अर्थात् सर्व अंग-पूर्व के एकदेशधर हुए हैं । - जयधवला, भा. 1, पृ. 86, धवला, पृ. 67 1
तिलोयपण्णत्ति में भी श्रुतविच्छेद की चर्चा है और वहाँ भी आचारांगधारी तक का समय वीर नि. 683 बताया गया है । तिलोयपण्णत्ति के अनुसार भी अंग श्रुत का सर्वथा विच्छेद मान्य नहीं है। उसे भी अंग - पूर्व के एकदेशधर अस्तित्व में संदेह नहीं है ।
सन्दर्भ
1.
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4.
5.
6.
7.
कसायपाहुडसुत्त, प्रस्तावना पृ. 52-53.
8.
जैन साहित्य और इतिहास, पं. नाथूराम प्रेमी, पृ. 1-3. यतिवृषभनामधेयो.. .... ततो यतिपतिना । - श्रुतावतार - 155-56.
9.
10. जैन साहित्य का बृहद इतिहास, भाग 1, पृ. 47, 48 एवं 50. (आधारभूत ग्रंथ नन्दीवृत्ति, समवायाग वृत्ति और धवला आदि). 11. पइण्णयसुत्ताई तिथ्योगाली, महावीर विद्यालय, बम्बई, गाथा 807-836, . 482-484.
12. नन्दी - चूर्णि, पृ. 8.
देखें - कसायपाहुडसुत्त, प्रस्तावना, पृ. 28 वहीं, प्रस्तावना, पृ. 52
देखें - कसायपाहुडसुत्त, पृ. टिप्पणी सहित
कसायपाहुडसुत्त की प्रस्तावना, पृ. 38
जैन साहित्य और इतिहास, पं. नाथूरामजी प्रेमी, पृ. 10.
वही, पृ. 10 .
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