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कारण से उपलब्ध प्रतियों में लिखने से छूट गया है। अतः, इस संभावना से इंकार नहीं किया जा सकता कि मूल तिलोयपण्णत्ति यापनीय कृत रही हो और यतिवृषभ भी यापनीय हों ।
दूसरे, मुझे ऐसा लगता है कि जब यापनीय संघ में आगमों के अध्ययनअध्यापन प्रवृत्ति शिथिल हो गई, अपनी परंपरा में निर्मित ग्रंथों से ही उनका काम चलने लगा, तभी आचार्यों द्वारा आगमों के क्रमिक उच्छेद की बात कही जाने लगी । सर्वप्रथम तिलोयपण्णत्ति, धवला और जयधवला में ही यह चर्चा आई । पुन्नाटसंघीय जिनसेन के हरिवंश के अंत में तो नाम भी नहीं दिये हैं, मात्र विच्छेद काल का उल्लेख किया है।
सभी ग्रंथों में उपलब्ध सूचियों में सामान्यतया नाम और कालक्रम की एकरूपता भी यही बताती है कि इन सभी का मूल स्त्रोत एक ही रहा होगा। वैसे आगमिक ज्ञान के विच्छेद का अर्थ यह भी नहीं है कि आगमग्रंथ सर्वथा विच्छेद हो गये। आगमों के एक देश ज्ञान की उपस्थिति तो सभी ने मानी ही है । मेरी दृष्टि में तो अब आगमों की विषयवस्तु एवं पद संख्या को लेकर हमारे आचार्य उस समय के उपलब्ध ग्रंथों की उपेक्षा करके उनकी महत्ता दिखाने के लिए कल्पनालोक में उड़ाने भरने लगे और आगमों की पद संख्या लाख और करोड़ की संख्या को भी पार करके आगे बढ़ने लगी और जब यह कहा जाने लगा कि विपाकसूत्र में एक करोड़ चौरासी लाख बत्तीस हजार पद थे अथवा 14वाँ पूर्व इतना बड़ा था कि उसे लिखने के लिए 14 हाथी डूब जाये इतनी स्याही लगती थी और उसमें साढ़े बारह करोड़ पद थे, " किन्तु वास्तविकता तो इससे भिन्न थी, उन नामों से उपलब्ध ग्रंथों का आकार उस कल्पित पद संख्या से बहुत छोटा था, अतः बचाव के लिए यह कहा जाने लगा कि आगम विच्छिन्न हो गये । जब वह श्वेताम्बर परंपरा भी, जो आगमों का संरक्षण कर रही थी, कहने लगी कि आगमविच्छिन्न हो रहे हैं, तो दिगम्बर और यापनीय परंपराओं द्वारा उनके विच्छेद A बात करना स्वाभाविक ही था । श्वेताम्बर परंपरा के आगमिक प्रकीर्णक ‘तीर्थोंद्गालिक' में भी आगमों के उच्छेद क्रम का उल्लेख है ।" जब आगमों के होते हुए भी श्वेताम्बर परंपरा उनके विच्छेद की बात कर सकती है, तो यापनीय आचार्यों द्वारा उनके विच्छेद की बात करना आश्चर्यजनक भी नहीं है। अतः आगमों के उच्छेद aal करने मात्र से किसी ग्रंथ के यापनीय होने को नकारा नहीं जा सकता है ।