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________________ 197 भगवती आराधना की गाथा 2069 (शोलापुर संस्करण) की टीका में यतिवृषभ द्वारा श्रावस्ती के शस्त्र ग्रहण करके देह त्याग करने का उल्लेख किया है। यह कथा हरिषेण के बृहद-कथाकोष में क्रमांक 156 पर और नेमिदत्त के आराधनाकोष में क्रम 81 पर विस्तार से वर्णित है । यद्यपि भगवती आराधना की मूल गाथा में मात्र 'गण' शब्द का उल्लेख है, किन्तु टीकाकार अपराजित तथा बृहद्कथाकोष के कर्त्ता हरिषेण ने उन्हें यतिवृषभ कहा है। संभवतः, टीकाकार और बृहद्कथाकोषकार के सम्मुख कोई अनुश्रुति रही होगी । यह स्पष्ट है कि भगवती आराधना के कर्त्ता शिवार्य, टीकाकार अपराजित यापनीय और बृहत्कथाकोषकार हरिषेण पुन्नाटसंघीय रहे हैं और इसलिए संभावना यही है कि उन्हें यह कथा अनुश्रुति से प्राप्त हुई हो और यतिवृषभ उन्हीं के परंपरा के प्राचीन आचार्य रहे हों । पुनः, यतिवृषभ के देहत्याग की यह घटना उत्तर भारत के श्रावस्ती नगर में घटित हुई थी । उत्तर भारत ही बोटिक या यापनीयों का केन्द्र था, इससे भी यही निष्कर्ष निकलता है कि यतिवृषभ उत्तर भारतीय अचेल परंपरा के आचार्य हैं । यतिवृषभ को यापनीय मानने में एकमात्र बाधा यह है कि उनकी तिलोयपण्णत्त में आगमों के विच्छेद का जो क्रम दिया गया है, वह यापनीय परंपरा के अनुकूल नहीं है, क्योंकि अपराजित ( 9वीं शती) अपनी विजयोदया टीका में आचारांग, सूत्रकृतांग, उत्तराध्ययन, बृहदकल्प, व्यवहार, निशीथ, जीतकल्प आदि आगमों का न केवल नामोल्लेख कर रहे हैं, अपितु उनके अनेकों वाक्यांश या गाथाएँ भी उद्धृत कर रहे हैं, किन्तु तिलोयपण्णत्ति को यापनीय कृति मानने में आगमों का विच्छेद बताने वाली गाथाएँ बहुत बाधक नहीं हैं। प्रथम तो तिलोयपण्णत्ति में पर्याप्त मिलावट हुई है, यह तथ्य दिगम्बर विद्वान् भी स्वीकृत करते हैं। पं. नाथूरामजी प्रेमी लिखते हैं कि “ इस तरह पं. फूलचंदजी के लेख से और जयधवला की प्रस्तावना से मालूम होता है कि उपलब्ध तिलोयपण्णत्ति अपने असल रूप में नहीं है। धवला टीका के बाद (अर्थात् 10वीं शताब्दी के पश्चात् ) उसमें संस्कार संशोधन, परिवर्तन, मिलावट की गई है।" इसी प्रकार, जयधवला की प्रस्तावना में पं. फूलचन्द्रजी लिखते हैं कि " वर्त्तमान तिलोयपण्णत्ति जिस रूप में पाई जाती है, उसी रूप में यतिवृषभ ने उसकी रचना की थी, इसमें संदेह है। हमें लगता है कि यतिवृषभ कृत तिलोयपण्णत्त में कुछ अंश ऐसा भी है, जो बाद में सम्मिलित किया गया और कुछ अंश ऐसा भी है, जो किसी
SR No.006191
Book TitleJain Sahityakash Ke Aalokit Nakshatra Prachin Jainacharya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith
Publication Year2016
Total Pages228
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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