________________
196 एकरूपता को स्पष्ट किया है।' यह सत्य है कि वे सभी मंगल पद्य नन्दीसूत्र की आदि मंगल गाथाओं से प्रभावित हैं और यही सिद्ध करते हैं कि ये चूर्णियाँ नन्दीसूत्र के बाद की हैं और उसी परंपरा की हैं।
__ भाष्य और चूर्णि लिखने की परंपरा श्वेताम्बरों में ही रही है, दिगम्बरों में न तो कोई भाष्य लिखा गया और न कोई चूर्णि ही, अतः संभावना यही है कि यतिवृषभ के चूर्णिसूत्र यापनीय परंपरा के ही होंगे, क्योंकि यापनियों और श्वेताम्बरों में आगमिक ज्ञान का पर्याप्त आदान-प्रदान हुआहै।
यदि यतिवृषभ आर्यमंक्षु और नागहस्ति के परंपरा शिष्य भी हों, तो संभावना यही है कि वे बोटिक/यापनीय होंगे, क्योंकि उत्तर भारतीय अबियल निग्रंथ परंपरा के आर्य मंक्षु और नागहस्ति का संबंध बोटिक/थापनीयों से हो सकता है, मूलसंघीय दक्षिणभारतीय कुन्दकुन्द की दिगम्बर परंपरा से नहीं है।
प्राकृत लोक विभाग, जिसके कर्ता सर्वनन्दी हैं, का उल्लेख यतिवृषभ ने अपनी तिलोयपण्णत्ति में पाँच बार किया है। शिवार्य ने भगवती आराधना में जिननन्दी, सर्वगुप्तगणि और मित्रनन्दी का उल्लेख अपने गुरुओं के रूप में किया है। अतः पं. नाथूराम प्रेमीजी ने यह माना है कि ये सर्वगुप्तगणि ही सर्वनन्दी हों। साथ ही, उन्होंने इन्हें यापनीय होने की संभावना प्रकट की है। अतः, संभव यही है कि यतिवृषभ ने तिलोयपण्णत्ति में अपनी ही परंपरा के आर्य सर्वनन्दी की कृति को उद्धृत कियाहो।
यतिवृषभ के आगे विशेषण के रूप में जो यति विरुद है, वह भी श्वेताम्बरों एवं यापनीयों में प्रचलित रहा है। इन्द्रनन्दी के श्रुतावतार में उन्हें यतिपति कहा है। यापनीय - शाकटायन को यतिग्राम-अग्रणी कहा गया है। इसके विपरीत, दक्षिण भारतीय दिगम्बर परंपरा में 'यति' विरुद प्रचलित रहा हो, ऐसी मुझे जानकारी नहीं है, किन्तु यापनीय परंपरा से निकले कष्ठासंघ के भट्टारक यति' कहे जाते रहे हैं, उदाहरणार्थसोनागिर के भट्टारकों की गद्दी आजभी यतिजी की गद्दी कही जाती है।
___ यतिवृषभ के चूर्णिसूत्रों में न तो स्त्रीमुक्ति का निषेष है और न केवलिमुक्ति का, अतः उन्हें यापनीय परंपरा से संबद्ध मानने में कोई बाधा नहीं आती।
यतिवृषभ को यापनीय मानने के लिए एक आधार यह भी है कि अपराजित ने