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________________ 193 1 उल्लेखित स्वाति को तत्त्वार्थ, के कर्त्ता उमास्वाति माने, अथवा उमास्वाति का .काल कम से कम ईसा की प्रथम शताब्दी माने, तब ही कसायपाहुड के कर्त्ता और प्रस्तोता के रूप में गुणधर, आर्यमक्षु और आर्य नागहस्ति को स्वीकार किया जा सकता है, तथापि यतिवृषभ को आर्यमक्षु और आर्य नागहस्ति का साक्षात् शिष्य और अन्तेवासी मानना संभव नहीं है । वे उनके परंपरा शिष्य ही हैं। वर्त्तमान में कसायपाहुडसुत्त में चूलिका और भाष्य भी उपलब्ध होते हैं। संक्षिप्त भाष्यों की रचनाएँ निर्युक्तियों के बाद और वृहद् कल्पभाष्य, व्यवहारभाष्य और विशेषावश्यकभाष्य जैसे विस्तृत भाष्य ग्रंथों की रचना के पहले होने लगी थीं। इनका काल लगभग ईसा की पाँचवीं शताब्दी मानना होगा । कसायपाहुड की भाष्य गाथाएँ भी इसी काल की होंगी और छठवीं-सातवीं शताब्दी में उस पर यह चूर्णि लिखी गई होगी । जिनभद्रगणि क्षमाश्रमण ने अपने विशेषावश्यकभाष्य में आदेशकषाय के स्वरूप की चर्चा करते हुए 'केचित्' कहकर उसके यतिवृषभ के चूर्णिसूत्र में निर्दिष्ट स्वरूप का उल्लेख किया है और यह बताया है कि वह स्थापनाकषाय से भिन्न नहीं है, उसी में उसका अन्तर्भाव हो जाता है', इस आधार पर पं. नाथूराम प्रेमी के अनुसार यतिवृषभ वि. सं. 666 के पूर्व हुए, यह निश्चित होता है, यह उनकी उत्तम सीमा है। यतिवृषभ वि.सं. 515 के पूर्व भी नहीं हुए हैं, क्योंकि यतिवृषभ के द्वारा सर्वनन्दी का लोकविभाग का तिलोयपण्णत्ति में पाँच बार उल्लेख हुआ है और सर्वनन्दी का लोकविभाग वि.सं. 515 (ई. सं. 458) की रचना है। इसी प्रकार, यतिवृषभ की तिलोयपण्णति में वीरनिर्वाण के 1000 वर्ष बाद तक की राज्य परंपरा का उल्लेख है । तिलोयपण्णत्ति के अनुसार, वी. नि. के 1000 वर्ष बाद कल्की की मृत्यु हुई और उसके बाद उसके पुत्र ने दो वर्ष तक धर्मराज्य किया। अतः, तिलोयपण्णत्ति वी. नि.सं. 1002 तदनुसार वि.सं. 532 अर्थात् ई. सन् 475 के बाद ही कभी रची गई है। अतः, यह मानने में कोई बाधा नहीं आती है कि यतिवृषभ वि.सं. 535 से वि.सं. 666 के बीच हुए हैं' और इस आधार पर उनके चूर्णिसूत्रों का रचनाकाल ईसा की छठवींसातवीं शताब्दी ही सिद्ध होता है । पुनः, तिलोयपण्णत्ति के अंत में पाई जाने वाली 'चुण्णिसरुवट्ठ' इत्यादि गाथा के आतुरप्रत्याख्यान, महाप्रत्याख्यान आदि की शताधिक गाथाओं के समान होने के आधार पर यह निष्कर्ष निकालना उचित होगा कि मूलाचार, आवश्यकनिर्युक्ति, आतुर - प्रत्याख्यान, महाप्रत्याख्यान आदि के रचयिता
SR No.006191
Book TitleJain Sahityakash Ke Aalokit Nakshatra Prachin Jainacharya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith
Publication Year2016
Total Pages228
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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