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________________ एक ही हैं ? वस्तुतः, ऐसा कहना दुस्साहसपूर्ण होगा। हम मात्र यही कह सकते हैं कि इन्होंने परस्पर एक दूसरे से अथवा अपनी ही पूर्व परंपरा से ये गाथाएँ ली हैं। दिगम्बर परंपरा में मान्य पंचसंग्रह (प्राकृत) में 'सतक' और 'सित्तरी'- दोनों ग्रंथ समाहित हैं। श्वेताम्बर परंपरा के सतक और सित्तरी से जब इनकी तुलना करते हैं, तो हम पाते हैं कि 2-3 गाथाओं को छोड़कर दोनों की संपूर्ण गाथाएँ एक समान हैं, अंतर मात्र महाराष्टी और शौरसेनीप्राकृत का है। ___ कसायपाहुडचूर्णि के अतिरिक्त कम्मपायडी, सतक और सित्तरीचूर्णि मूलतः श्वेताम्बर भण्डारों से ही उपलब्ध हुई हैं और श्वेताम्बर परंपरा में ही प्रचलित रही हैं। यदि हम उनकी भाषा का विचार करें, तो स्पष्ट रूप से यह निश्चित हो जाता है कि दोनों की परंपराएँ भिन्न हैं। जहाँ कषायपाहुडचूर्णिशौरसेनी प्राकृत में उपलब्ध होती है, वहाँ कम्मपयडी चूर्णि, सतकचूर्णि और सित्तरीचूर्णि महाराष्टी प्रभावित अर्द्धमागधी में उपलब्ध है।आज तक न तो श्वेताम्बर परंपरा का कोई ऐसा ग्रंथ उपलब्ध हुआ है, जो शौरसेनी प्राकृत में रचा गया है और न दिगम्बर तथा यापनीय परंपरा में ऐसा ग्रंथ पाया गया है, जो महाराष्टी प्राकृत में लिखा गया हो। यह निर्विवाद है कि न तो श्वेताम्बरों ने शौरसेनी प्राकृत को अपने लेखन का आधार बनाया और न ही यापनीय और दिगम्बर परंपरा ने अर्द्धमागधी तथा महाराष्टी प्राकृत को कभीअपनाया। हाँ, इतनाअवश्य हुआ है कि जब किसी यापनीय या दिगम्बर आचार्य ने श्वेताम्बर परंपरा में मान्य अर्द्धमागधी अथवा महाराष्टी प्राकृत ग्रंथों के आधार पर कोई रचना की हो, तो अर्द्धमागधी और महाराष्टी प्राकृत का प्रभाव आ गया। इसी प्रकार, जब किसी श्वेताम्बर आचार्य ने किसी शौरसेनी प्राकृत के ग्रंथ को आधार बनाकर कोई रचना की, तो उस परशौरसेनी प्राकृत का प्रभाव आ गया है। यद्यपि शौरसेनी प्रभावयुक्त महाराष्टी प्राकृत के ग्रंथों में तीर्थोंद्गालिक प्रकीर्णक को छोड़कर अन्य कोई रचना उपलब्ध नहीं है, जो अनेक प्रश्नों पर श्वेताम्बर मान्यता से भिन्न है, जबकि अर्द्धमागधी और महाराष्टी प्राकृत के प्रभाव से युक्त शौरसेनी प्राकृत के अनेकों ग्रंथ हैं। प्रायः यापनीय और दिगम्बर परंपरा के सभी ग्रंथों पर अर्धमागधी या महाराष्टी का प्रभाव देखा जाता है, जो इस तथ्य का प्रमाण है कि इनकी गाथाएँ अर्द्धमागधी स्रोतों से आई हैं। यह स्पष्ट है कि प्राचीन स्तर के जो ग्रंथ अपनी विषय-वस्तु एवं शैली की दृष्टि से अर्द्धगागधी आगमों और आगमिक व्याख्याओं के निकट हैं और जो शौरसेनी प्राकृत
SR No.006191
Book TitleJain Sahityakash Ke Aalokit Nakshatra Prachin Jainacharya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith
Publication Year2016
Total Pages228
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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