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________________ 190 | साहित्य साधना वे पाण्डित्य प्रदर्शन के लिए न करके मात्र आत्म अभिव्यक्ति की भावना से कर रहे हैं । यही कारण है कि उनकी रचनाओं में कृत्रिमता न होकर एक सहजता है । यद्यपि उनमें पाण्डित्य प्रदर्शन की कोई एक भावना नहीं है, फिर भी उनके काव्य में सरसता और जीवन्तता है । यद्यपि वे आजीवन गृहस्थ ही रहे, फिर भी उनकी रचनाओं में जो आध्यात्मिक ललक है, वह उन्हें गृहस्थ होकर भी संत के रूप में प्रतिष्ठित करती है । वस्तुतः, उनके काव्य में जो सहज आत्माभिव्यक्ति है, उसी ने उन्हें एक महान् कवि बना दिया है। महापण्डित राहुल सांस्कृत्यायन ने उन्हें हिन्दी कविता के प्रथम युग का सबसे बड़ा कवि माना है । वे भारत के गिने-चुने कवियों में एक हैं। स्वयंभू की रचनाएँ स्वयंभू की ज्ञात रचनाएँ निम्न 6 हैं- (1) पउमचरिउ, (2) स्वयंभू छन्द, (3) रिट्ठनेमिचरिउ, (4) सुव्वचरिउ, (5) सिरिपञ्चमीचरिउ, (6) अपभ्रंश व्याकरण । इनमें प्रथम दो प्रकाशित हो चुके हैं, तीसरा भी प्रकाशन की प्रक्रिया में है, किन्तु शेष तीन अभी तक अनुपलब्ध हैं। इनके संबंध में अभी कुछ कहना कठिन है, किन्तु आशा की जा सकती है कि भविष्य में किसी न किसी ग्रंथ भंडार में इनकी प्रतियाँ उपलब्ध हो सकेंगी। उनके व्यक्तित्व के वैशिष्ट्य के संबंध में डॉ. किरण सिपानी ने विस्तृत चर्चा और समीचीन समीक्षा भी प्रस्तुत की है। संदर्भ : 1. एह रामकह- सरि सोहन्ती । गणहरदेवहिं दिट्ठ वदन्ती । पच्छह इन्दभूह आयरिएं। पुणु धम्मेण गुणालंकरिएं ॥ पुगु पहवें संसाराराएं । कित्तिहरेणं अणुत्तरवाएं। पुणु रविसेणायरिय - पसाएं। वुद्धिएं अवगाहिय कइराएं । - पउमचरिउं- 1/6-9. स्वयंभू पदडीबद्धकर्त्ता आपलीसंघीय । - महापुराण (टिप्पणयुक्त), पृष्ठ 9. जैन साहित्य और इतिहास, पृष्ठ 197. पउमचरिउं, सं. डॉ. हरिवल्लभ भयाणी, सिंघी जैन ग्रंथमाला, ग्रन्थांक 34, भूमिका (अंग्रेजी), पृ. 13. वही, पृ. 9. स्वयंभूपावंडीबद्ध रामायण कर्ता आपीसंघीय । - महापुराण, 1/9/5 टिप्पण. पउमचरिउं, सं. डॉ. हरिवल्लभ भयाणी, भूमिका (अंग्रेजी), पृ. 13-15. 2. 3. 3 4. 5. 6. 7.
SR No.006191
Book TitleJain Sahityakash Ke Aalokit Nakshatra Prachin Jainacharya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith
Publication Year2016
Total Pages228
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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