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183 प्रो. भयाणी इसे मान्य नहीं करते हैं। संभवतः, उनके इस कथन का आधार स्वयंभूद्वारा राष्टकूट राजा ध्रुव के सामन्त धनञ्जय का अपने आश्रयदाता के रूप में उल्लेख है। उन्होंने पउमचरिउ के विद्याधर काण्ड में स्वयं ही यह उल्लेख किया है, उन्होंने ध्रुव के हेतु इसकी रचना की। इतिहासकारों ने राष्टकूट राजा ध्रुव का काल ई. सन् 780 से 794 माना है। स्वयम्भू इनके समकालीन रहे होंगे। स्वयम्भू द्वारा अपनी कृतियों में काण्डों की समाप्ति में वारो, नक्षत्रों आदि का उल्लेख तो किया गया है, किन्तु दुर्भाग्यसे संवत् का उल्लेख कहीं नहीं है। इनके अनुसार, पिल्लाई पञ्चाङ्ग के आधार पर प्रो. भयाणी ने यह माना कि युद्धकाण्ड 31 मई 717 को समाप्त हुआ होगा, किन्तु यह मात्र अनुमान ही है, क्योंकि यहाँ संवत् से स्पष्ट उल्लेख का अभाव है। फिर भी, इतना तो सुनिश्चित है कि स्वयम्भूई. सन् की 8वीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध एवं नौवीं शताब्दी के पूर्वार्द्ध अर्थात् ई. सन् 751 से 850 के बीच कभी हुए हैं। स्वयंभूका सम्प्रदाय
जहाँ तक स्वयम्भू की धर्म परंपरा का प्रश्न है, यह स्पष्ट है कि वे जैन परंपरा में हुए हैं। यद्यपि उनके पुत्रादि के नामों को देखकर ऐसा अनुमान किया जा सकता है कि उनके कुल का संबंधशैवयावैष्णव परंपरा में रहा होगा, किन्तु मेरी दृष्टि में यह कल्पना इसलिए समीचीन नहीं लगती है कि यदि वे शैव या वैष्णव परंपरा में हुए होते, तो निश्चित ही वाल्मीकि की रामकथा का अनुसरण करते, न कि विमलसूरि या रविषेण की रामकथा का। पुनः, उनके द्वारा रिट्ठनेमिचरिउ आदि की रचना से भी यह स्पष्ट हो जाता है कि उनका संबंध जैन परंपरा से रहा होगा। इसका स्पष्ट प्रमाण यह है कि पुष्पदन्त के महापुराण के संस्कृत टिप्पण में उन्हें स्पष्टतया आपलीयसंघीय (यापनीयसंघीय) कहा गया है। डॉ. किरण सिपानी ने उनके व्यक्तित्व आदि के सम्बन्ध में विस्तृत चर्चा करते हुए स्वयम्भू की धार्मिक सहिष्णुता एवं वैचारिक उदारता के आधार पर जो यह निष्कर्ष निकाला है कि वे कट्टरतावादी दिगम्बर सम्प्रदाय की अपेक्षा जैन धर्म के समन्वयवादी यापनीय सम्प्रदाय से सबंधित रहे होंगे, उचित तो है, फिर भी मेरी दृष्टि में स्वयंम्भू का मात्र सहिष्णु और उदारवादी होना ही उनके यापनीय होने का प्रमाण नहीं है, इसके अतिरिक्त भी ऐसे अनेक प्रमाण हैं, जिसके आधार पर उन्हें यापनीय सम्प्रदाय का माना जा सकता है। 1. स्वयम्भू ने भी अपने रामकथा के स्त्रोत की चर्चा करते हुए रविषेण की परंपरा