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________________ 10- अपभ्रंश के महाकवि स्वयम्भू ( ईस्वी सन् की 8वीं शती) 182 महाकवि स्वयंभूदेव का अपभ्रंश साहित्य के कवियों में महत्वपूर्ण अवदान है। पुष्पदन्त ने उन्हें व्यास, भास, कालिदास, भारवी और बाण के समकक्ष कवि माना है । वे 'महाकवि', 'कविराज', 'कवि चक्रवर्त्ती' जैसी उपाधियों से सम्मानित थे । यद्यपि स्वयंभू की तीन महत्वपूर्ण कृतियाँ आज भी अविकल रूप से उपलब्ध हैं, फिर भी उनसे उनके जीवन के संबंध में बहुत कम जानकारी उपलब्ध होती है। उनकी इन कृतियों में उनके जन्म-स्थान, कुल, परम्परा, समय आदि के संबंध में बहुत कम सूचनाएँ प्राप्त हैं । जहाँ तक स्वयंभू के पारिवारिक जीवन का प्रश्न है, हमें मात्र इतनी ही जानकारी प्राप्त है कि उनके पुत्रों में एक पुत्र का नाम त्रिभुवनस्वयंभू था, जिसने अपने पिता की अधूरी कृति को पूर्ण किया था। इसके साथ ही स्वयंभू की कृतियों में उनके पिता मारुतदेव और माता पद्मनी का उल्लेख मिलता है। उन्होंने यह भी कहा कि उनकी माता पद्मनी के समान ही सुंदर थी। इन सामान्य सूचनाओं के अतिरिक्त उनकी वंश परंपरा आदि की विस्तृत जानकारी अप्राप्त है । स्वयंभू की दो पत्नियाँ थीं, एक अमृताम्ब और दूसरी आदित्याम्बा | पंडित नाथूराम प्रेमी ने उनकी तीसरी पत्नी सुअम्बा का भी अनुमान किया है, जो संभवतः उनके पुत्र त्रिभुवनस्वयंभू की माता थी । स्वयंभू का क जहाँ तक स्वयंभू के समय का प्रश्न है, उनकी कृतियों में कहीं भी रचनाकाल का कोई स्पष्ट उल्लेख नहीं मिलता है, फिर भी उन्होंने अपनी कृतियों में बाण, श्रीहर्ष, रविषेण आदि का स्मरण किया है, इससे कुछ अनुमान लगाया जा सकता है। रविषेण के पद्मचरित्र का रचनाकाल ई. सन् 677 माना जाता है, अतः इतना निश्चित है कि स्वयंभू ई. सन् 677 के पश्चात् ही हुए हैं। पुनः, पुष्पदन्त ने अपने महापुराण में अपने पूर्ववर्ती कवियों में स्वयंभू का उल्लेख किया है। पुष्पदन्त के महापुराण का रचनाकाल ई. सन् 960 है । अतः, इतना निश्चित होता है कि स्वयंभू ई. सन् 677 में 960 के बीच कभी हुए हैं, स्वयंभू द्वारा रविषेण का उल्लेख तथा जिनसेन का अनुल्लेख यह भी सूचित करता है कि वे जिनसेन के कुछ पूर्व ही हुए होंगे। जिनसेन के हरिवंशपुराण का रचनाकाल ई. सन् 783 माना जाता है, अतः स्वयंभू का समय ई. सन् 677 से ई. सन् 783 के मध्य भी माना जा सकता है । यद्यपि यह एक अभावात्मक साक्ष्य है, इसीलिए
SR No.006191
Book TitleJain Sahityakash Ke Aalokit Nakshatra Prachin Jainacharya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith
Publication Year2016
Total Pages228
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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