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________________ 184 3. 4. का अनुसरण किया है। वे भी इस कथा को महावीर, इन्द्रभूति, सुधर्मा, प्रभव, कीर्ति तथा रविषेण से प्राप्त बताते हैं । अपने कथास्त्रोत में प्रभव आदि का उल्लेख यही सिद्ध करता है कि वे यापनीय परंपरा से सम्बद्ध रहे होंगे, क्योंकि दिगम्बर परंपरा में प्रभवकाउल्लेख नहीं है। उनकी रामकथा में भी विमलसूरि के पउमचरिय' तथा रविषेण के ‘पद्मचरित' का अनुसरण हुआ है। उन्होंने दिगम्बर परंपरा में प्रचलित गुणभद्र की रामकथा का अनुसरण नहीं किया है। इससे भी यही सिद्ध होता है कि उनकी कथाधारा दिगम्बर परंपरा की कथाधारा से भिन्न है। यदि रविषेण यापनीय हैं, तो उनकी कथा-धारा का अनुसरण करने वाले स्वयंभूभी यापनीयही सिद्ध होते हैं।' यद्यपि स्वयंभू ने स्पष्ट रूप से अपने सम्प्रदाय का उल्लेख ही नहीं किया है, किन्तुपुष्पदन्त के महापुराण के टिप्पण में उन्हेंआपलीयसंघीय बताया गया है।' इसी आधार पर पण्डित नाथूरामजी प्रेमी ने भी उन्हें यापनीय माना है।' स्वयम्भू द्वारा दिवायर (दिवाकर), गुणहर (गुणधर), विमल (विमलसूरि) आदिअन्य परंपरा के कवियों का आदरपूर्वक उल्लेख भी उनके यापनीय परम्परा से सम्बद्ध होने का प्रमाण इसीलिए माना जाना चाहिए कि ऐसी उदारता यापनीय परम्परामें देखी जाती है, दिगम्बरपरम्परा में नहीं। 5. स्वयम्भू के ग्रन्थों में अन्यतैर्थिक की मुक्ति की अवधारणा को स्वीकार किया गया है। अन्यतैर्थिक की मुक्ति की अवधारणा आगमिक है और आगमों को मान्य करने के कारण यह अवधारणाश्वेताम्बर और यापनीय- दोनों में स्वीकृत रही है। उत्तराध्ययन, जिसमें स्पष्ट रूप से अन्यलिंग सिद्ध का उल्लेख है, यापनीयों को भी मान्य रहा है। प्रोफेसर एच.सी. भायाणी का मन्तव्य भी उन्हें यापनीय मानने के पक्ष में है।वे लिखते हैं कि यद्यपि इस संदर्भ में हमें स्वयंभूकी ओर से प्रत्यक्ष या परोक्ष कोई वक्तव्य नहीं मिलता है, परंतु यापनीय सग्रन्थ अवस्था तथा परशासन से भी मुक्तिस्वीकार करतेथेऔर स्वयम्भूने भी अपनी कृतियों में ऐसे उल्लेख किये हैं। पुनः वे अपेक्षाकृत अधिक उदारचेताथे, अतः उन्हें यापनीय माना जासकता है। 6... एक ओर अचेलकत्व पर बल और दूसरी ओर श्वेताम्बर मान्य आगमों में
SR No.006191
Book TitleJain Sahityakash Ke Aalokit Nakshatra Prachin Jainacharya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith
Publication Year2016
Total Pages228
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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