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________________ - 173 तुलनीय दर्शनाद्धृष्ट एवानुभ्रष्ट इत्यभिधीयते। नहि चारित्रविभ्रष्टोभ्रष्ट इत्युच्यते बुधैः॥96॥ महता तपसायुक्तो मिथ्यादृष्टिरसंयतः। तस्य सर्वज्ञसंदृष्ट्या संसारोऽनन्त उच्यते॥97॥ -वरांगचरित, सर्ग-26 इसी प्रकार वरांगचरित के निम्न श्लोक आतुर प्रत्याख्यान में पाये जाते हैंएकस्तु मे शाश्वतिक : स आत्मा सदृष्टिसज्ज्ञानगुणैरुपेतः। शेषाश्च मे बाह्यतमाश्च भावा: संयोगसल्लक्षणलक्षितास्ते॥101॥ संयोगतो दोषमवाप जीवः परस्परं नैकविधानुबन्धि। तस्माद्विसंयोगमतो दुरन्तमाजीवितान्तादेहमुत्सृजामि ।।102॥ सर्वेषु भूतेषु मनः समं मे वैरं न मे केनचिदस्ति किंचित् । आशां पुनः क्लेशसहस्रमूलां हित्वा समाधिं लघु संप्रपद्ये ॥103॥ - वरांगचरित, सर्ग 31 तुलनीय एगो मे सासओ अप्पा नाण-दंसणसंजुओ। सेसा मे बहिरा भावा सव्वे संजोगलक्खणा॥27॥ संजोगमूला जीवेणं पत्ता दुक्खपरंपरा। तम्हा संजोगसंबंध सव्वं भावेण वोसिरे ॥28॥ सम्मं मे सव्वभूएसु वेर मज्झ न केणई। आसाओ वोसिरित्ताणं समाहिं पडिवज्जए ।॥22॥ - आतुरप्रत्याख्यान ये तीनों गाथाएं आतुरप्रत्याख्यान से सीधे वरांगचरित में गईं या मूलाचार के माध्यम से वरांगचरित में गईं, यह एक अलग प्रश्न है। मूलाचार यापनीय ग्रंथ है, अतः यदि ये गाथाएँ मूलाचार से भी ली गई हों, तो भी जटासिंहनन्दी और उनके ग्रंथ वरांगचरित के यापनीय होने की ही पुष्टि होती है। यद्यपि कुन्दकुन्द के ग्रंथों में भी ये गाथाएँ पाई जाती हैं, किंतु इतना निश्चित है कि कुन्दकुन्द ने भी ये गाथाएँ मूलाचार से ही ली होंगी। पुनः, मूलाचार में आतुरप्रत्याख्यान की लगभग सभी गाथाएँ समाहित कर ली गई हैं, अतः अन्ततोगत्वा तो येगाथाएँ आतुर प्रत्याख्यान से ही ली गई हैं।
SR No.006191
Book TitleJain Sahityakash Ke Aalokit Nakshatra Prachin Jainacharya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith
Publication Year2016
Total Pages228
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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