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________________ 172 अल्पकाल में ही आचारांग और अनेक प्रकीर्णकों का सम्यक् अध्ययन करके क्रमपूर्वक अंगों एवं पूर्वो का अध्ययन किया"।" इस प्रसंग में प्रकीर्णकों का उल्लेख महत्वपूर्ण है। विषयवस्तु की दृष्टि से तो इसके अनेक सर्गों में आगमों का अनुसरण देखा जाता है। विशेष रूप से स्वर्ग, नरक, कर्म-सिद्धांत आदि संबंधी विवरण में उत्तराध्ययनसूत्र का अनुसरण हुआ है। जटासिंहनन्दी ने चतुर्थ सर्ग में जो कर्मसिद्धांत का विवरण दिया है, उसके अनेक श्लोक अपने प्राकृत रूप में उत्तराध्ययन के तीसवें कर्मप्रकृति नामक अध्ययन में यथावत् मिलते हैं - उत्तराध्ययन वरांगचरित 30/2-3 ___4/2-3 30/4-6 4/24-25 30/8-9 4/25-26-27 30/10-11 4/28-29 30/12 4/33 (आंशिक) 30/13 4/35 (आंशिक) 30/15 4/37 यद्यपि संपूर्ण विवरण की दृष्टि से वरांगचरित का कर्मसिद्धांत संबंधी विवरण उत्तराध्ययन की अपेक्षा विकसित प्रतीत होता है। इसी प्रकार की समानता स्वर्ग-नरक के विवरण में भी देखी जाती है। उत्तराध्ययन में 36वें अध्ययन की गाथा क्रमांक 284 से 296 तक वरांगचरित के नौवें सर्ग के श्लोक 1 से 12 तक किंचित् शाब्दिक परिवर्तन के साथ संस्कृत रूप में पाई जाती है । आश्चर्य की बात यह है कि जटासिंहनन्दीभीआगमों के अनुरूपबारह देवलोकों की चर्चा करते हैं। ... इसी प्रकार, प्रकीर्णक साहित्य की भी अनेक गाथाएँ वरांगचरित में अपने संस्कृत रूपांतर के साथ पायी जाती हैं, देखें दसणभट्ठो भट्ठो, नहुभट्ठो होइचरणब्भट्ठो। दसणमणुपत्तस्स उपरियडणंनत्थिसंसारे।।65॥ दसणभट्ठोभट्ठो, दंसणभट्ठस्सनत्थि निव्वाणं। ' सिझंति चरणरहिया, दंसणरहियान सिझंति॥66॥ - भक्तपरिज्ञा
SR No.006191
Book TitleJain Sahityakash Ke Aalokit Nakshatra Prachin Jainacharya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith
Publication Year2016
Total Pages228
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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