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श्वेताम्बर और यापनीय परंपरा की पूर्वज उत्तर भारतीय निर्ग्रन्थ धारा से सम्बद्ध रहे हैं। उनके सन्मतितर्क में क्रमवाद के साथ-साथ युगपदवाद की समीक्षा, आगमिक परंपरा का अनुसरण, कृति का महाराष्टी प्राकृत में होना आदि तथ्य इसी संभावना को पुष्ट करते हैं। वरांगचरित के 26वें सर्ग के अनेक श्लोक सन्मतितर्क के प्रथम और तृतीय काण्ड की गाथाओं का संस्कृत रूपान्तरण मात्र लगते हैं। वरांगचरित सन्मतितर्क वरांगचरित सन्मतितर्क 26/52 1/6 26/65 1/52 26/53 1/9 26/69 3/47 26/54 1/11 26/70 26/55 1/12 26/71 3/55 26/57 1/17 26/72 3/53 26/58 1/18 26/78 3/69 26/60 1/21 26/90 3 /69 26/61 1/22 26/99 3/67 26/62 1/23-24 26/100 3/68 26/63 1/25 26/64 1/51
वरांगचरितकार जटासिंहनन्दी द्वारा सिद्धसेन का यह अनुसरण इस बात का सूचक है कि वे सिद्धसेन से निकट रूप से जुड़े हुए हैं। सिद्धसेन का प्रभाव श्वेताम्बरों के साथ-साथ यापनीयों के कारण पुन्नाटसंघीय आचार्यों एवं पंचस्तूपान्वय के आचार्यों पर भी देखा जाता है। इससे यह सिद्ध होता है कि जटासिंहनन्दी उस यापनीय अथवा कूर्चक परंपरा से संबंधित रहे होंगे, जोअनेक बातों में श्वेताम्बरों की आगमिक परंपरा के निकट थी। यदि सिद्धसेन श्वेताम्बरों और यापनीयों के पूर्वज आचार्य हैं, तो यापनीय आचार्यों के द्वारा उनका अनुसरण संभव है।
यद्यपि वरांगचरित के इसी सर्ग की दो गाथाओं पर समन्तभद्र का भी प्रभाव देखा जाता है, किन्तु सिद्धसेन की अपेक्षा यहप्रभाव अल्पमात्रा में हैं।"
(7) वरांगचरित में अनेक संदर्भो में आगमों, प्रकीर्णकों एवं नियुक्तियों का अनुसरण भी किया गया है। सर्वप्रथम तो उसमें कहा गया है- “उन वरांगमुनि ने