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________________ 170 इन शिलालेखों में सिंहनन्दी को गंग वंश का समुद्धारक कहा गया है। यदि गंग वंश का प्रारंभ ई. सन् चतुर्थ शती माना जाता है, तो गंग वंश के संस्थापक सिंहनन्दी जटासिंहनन्दी से भिन्न होने चाहिए।पुनः, काणूरगणकाअस्तित्व भी ई.सन् की 7वीं - 8वीं शती के पूर्व ज्ञात नहीं होता है। संभावना यही है कि जटासिंहनन्दी काणूरगण के आचार्य रहे होंगे और उनका गंग वंश पर अधिक प्रभाव रहा हो। अतः, आगे चलकर उन्हें गंग वंश का उद्धारक मान लिया गया हो तथा गंग वंश के उद्धार की कथा उनसे जोड़ दी गई हो। (3) जन्न ने अनन्तनाथ पुराण में न केवल जटासिंहनन्दी का उल्लेख किया है, अपितु उनके साथ-साथ ही काणूरगण के इन्द्रनन्दी आचार्य का भी उल्लेख किया है।' हम छेदपिण्ड शास्त्र की परंपरा की चर्चा करते समय अनेक प्रमाणों से यह सिद्ध कर चुके हैं कि जटासिंहनन्दी के समकालीन या उनसे किंचित परवर्ती ये इन्द्रनन्दी रहे हैं, जिनका उल्लेख शाकटायन आदि अनेक यापनीय आचार्यों ने किया है । जन्न ने जटासिंहनन्दीऔर इन्द्रनन्दी दोनों को काणूरगण का बताया है। (4) कोप्पल में पुरानी कन्नड़ में एक लेख भी उपलब्ध होता है, जिसके अनुसार जटासिंहनन्दी के चरण-चिह्नों को चाव्वय ने बनाया था। इससे यह सिद्ध होता है कि जटासिंहनन्दी का समाधिमरण सम्भवतः कोप्पल में हुआ हो। पुनः, डॉ. उपाध्येने गणभेद नामक अप्रकाशित कन्नड़ग्रंथ के आधार पर यह भी मान लिया है कि कोप्पल या कोपन यापनीयों का मुख्य पीठ था। अतः, कोप्पल/कोपन से संबंधित होने के कारणजटासिंहनन्दी के यापनीय होने की संभावना अधिक प्रबल प्रतीत होती है। (5) यापनीय परंपरा में मुनि के लिए यति' का प्रयोगअधिक प्रचलितरहा है। यापनीय आचार्य पाल्यकीर्तिशाकटायन को यतिग्रामाग्रणी' कहा गया है। हम देखते हैं कि जटासिंहनन्दी के इस वरांगचरित में भी मुनि के लिए यति' शब्द का प्रयोग बहुतायत से हुआहैं।ग्रंथकार की यह प्रवृत्ति उसके यापनीय होने का संकेत करती है। (6) वरांगचरित में सिद्धसेन के सन्मतितर्क का बहुत अधिक अनुसरण देखा जाता है। अनेक आधारों पर यह सिद्ध होता है कि सन्मतितर्क के कर्ता सिद्धसेन किसी भी स्थिति में दिगम्बर परंपरा से सम्बद्ध नहीं रहे हैं। यदि वे 5वीं शती के पश्चात् हुए हैं, तो निश्चित ही श्वेताम्बर हैं और यदि उसके पूर्व हुए हैं, तो अधिक से अधिक
SR No.006191
Book TitleJain Sahityakash Ke Aalokit Nakshatra Prachin Jainacharya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith
Publication Year2016
Total Pages228
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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