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________________ 169 9. जटासिंहनन्दी और उनका वरांगचरित्र ( ईस्वी सन् की 7वीं एवं 8वीं शती) 3 जटासिंहनन्दी यापनीय परंपरा से संबंद्ध रहे हैं, इस संबंध में जो बाह्य साक्ष्य उपलब्ध हैं, उनमें प्रथम यह है कि कन्नड़ कवि जन्न ने जटासिंहनन्दी को 'काणूरगण' का बताया है । अनेक अभिलेखों से यह सिद्ध होता है कि यह कारगण प्रारंभ में 1 यापनीय परंपरा का एक गण था। इस गण का सर्वप्रथम उल्लेख सौदत्ती के ई . सन् दसवीं शती (980) के एक अभिलेख से मिलता है। इस अभिलेख में गण के साथ यापनीय संघ का भी स्पष्ट निर्देश है।' यह संभव है कि इस गण का अस्तित्व इसके पूर्व सातवीं -आठवीं शती में भी रहा हो। डॉ. उपाध्ये जन्न के इस अभिलेख को शंका की दृष्टि से देखते हैं। उनकी इस शंका के दो कारण हैं- एक तो यह कि गणों की उत्पत्ति और इतिहास के विषय में पर्याप्त जानकारी का अभाव है, दूसरे जटासिंहनन्दिन्न समकालीन भी नहीं हैं ।' यह सत्य है कि दोनों में लगभग पाँच सौ वर्ष का अंतराल हैं, किन्तु मात्र कालभेद के कारण जन्म का कथन भ्रांत हो, हम डॉ. उपाध्ये के इस मन्तव्य से सहमत नहीं हैं। यह ठीक है कि यापनीय परंपरा के काणूर आदि कुछ गणों का उल्लेख आगे चलकर मूलसंघ और कुन्दकुन्दान्वय के साथ भी हुआ है, किन्तु इससे उनका मूल में यापनीय होना अप्रमाणित नहीं हो जाता । काणूरगण के ही 12वीं शताब्दी तक के अभिलेखों में यापनीय संघ के उल्लेख उपलब्ध होते हैं । (देखें - जैन शिलालेख संग्रह, भाग 5, लेख क्रमांक 117) इसके अतिरिक्त स्वयं डॉ. उपाध्ये ने 12वीं शताब्दी के पूर्वार्द्ध के कुछ शिलालेखों में काणूरगण के सिंहनन्दी के उल्लेख को स्वीकार किया है ।' यद्यपि इन लेखों में काणूरगण के इन सिंहनन्दी को कहीं मूलसंघ और कहीं कुन्दकुन्दान्वय का बताया गया है, लेकिन स्मरण रखना होगा कि यह लेख उस समय का है, जब यापनीय सहित सभी अपने को मूल संघ से जोड़ने लगे थे । पुनः, इन लेखों में सिंहनन्दी का काणूरगण के आद्याचार्य के रूप में उल्लेख है । उनकी परंपरा में प्रभाचन्द्र, गुणचन्द्र, माघनन्दी, प्रभाचन्द्र, अनन्तवीर्य, मुनिचन्द्र, प्रभाचन्द्र आदि का उल्लेख है - यह लेख तो बहुत समय पश्चात् लिखा गया है । पुनः, इन लेखों में भी प्रारंभ में जटासिंहनन्दी आचार्य का उल्लेख है, वहाँ न तो मूलसंघ का उल्लेख है और न कुन्दकुन्दान्वय का, वहाँ मात्र काणूरगण का उल्लेख है । यह काणूरगण प्रारंभ में यापनीय गण था । अतः, सिद्ध है कि जटासिंहनन्दी काणूरगण के आद्याचार्य रहे होंगे।
SR No.006191
Book TitleJain Sahityakash Ke Aalokit Nakshatra Prachin Jainacharya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith
Publication Year2016
Total Pages228
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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