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आवश्यकनियुक्ति कीभी निम्न दो गाथाएँ वरांगचरित में मिलती हैंहयं नाणं कियाहीणं, हयाअन्नाणओ किया। पासंतो पंगुलो दड्ढो धावमाणोअअंधओ।।101।। संजोगसिद्धीइ फलं वयंति, नहु एगचक्केण रहोपयाइ।
अंधोयपंगूयवणेसमिच्चा ते संपउत्तानगरंपविठ्ठा॥102॥ तुलनीय
क्रियाहीनंच यज्ज्ञानंनतु सिद्धिं प्रयच्छति। . परिपश्यन्यथा पङ्गुमुग्धो दग्धो दवाग्निना॥99॥ तौ यथासंप्रयुक्तौ तु दवाग्निमधिगच्छतः। तथा ज्ञानचारित्राभ्यां संसारान्मुच्यतेपुमान्॥101॥
- वरांगचरित, सर्ग 26 आगम, प्रकीर्णक और नियुक्ति साहित्य का यह अनुसरण जटासिंहनन्दी और उनके ग्रंथ को दिगम्बरेतर यापनीय याकूर्चक सम्प्रदाय का सिद्ध करता है।
(8) जटासिंहनन्दी ने न केवल सिद्धसेन का अनुसरण किया है, अपितु उन्होंने विमलसूरि के पउमचरियं का भी अनुसरण किया है। चाहे यह अनुसरण उन्होंने सीधे रूप से किया हो यारविषेण के पद्मचरित के माध्यम से किया हो, किन्तु इतना सत्य है कि उन पर यह प्रभाव आया है। वरांगचरित के श्रावक के व्रतों की जो विवेचना उपलब्ध होती है, वह न तो पूर्णतः श्वेताम्बर परंपरा के उपासकदशा के निकट है और न पूर्णतः दिगम्बर परंपरा द्वारा मान्य तत्त्वार्थ के पूज्यपाद देवनन्दी के सर्वार्थसिद्धि के मूलपाठ के निकट है, अपितु वह विमलसूरिके पउमचरियं के निकट हैं। पउमचरियं के समान ही इसमें भी देशावकासित व्रत का अन्तर्भाव दिव्रत में मानकर उस रिक्त स्थान की पूर्ति के लिए संलेखना को बारहवाँ शिक्षाव्रत माना गया है"। कुन्दकुन्द ने भी इस परंपरा का अनुसरण कियाहै"। कुन्दकुन्द विमलसूरि सेतो निश्चित ही परवर्ती हैं और सम्भवतः जटासिंहनन्दी से भी, अतः उनके द्वारा किया गया यह अनुसरण अस्वाभाविक भी नहीं है। स्मरण रहे कि कुन्दकुन्द ने त्रस-स्थावर के वर्गीकरण, चतुर्विध मोक्षमार्ग आदि के संबंध में भी आगमिक परम्परा का अनुसरण किया है और उनके ग्रंथों में प्रकीर्णकों की अनेक गाथाएँ मिलती हैं। विमलसूरि के पउमचरियं का अनुसरण, रविषेण, स्वयम्भू आदि अनेक यापनीय आचार्यों ने किया है, अतः जटासिंहनन्दी के यापनीय होने की संभावना प्रबल प्रतीत होती है।