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________________ 164 देशविरति में जिस तरह नवपयपयरण में नौ द्वारों का प्रतिपादन है, उसी प्रकार यहां पर भी नौ द्वारों का उल्लेख है। पंचाशकों में जैन आचार और विधि-विधान के सम्बंध में अनेक गम्भीर प्रश्नों कोउपस्थित करके उनके समाधान प्रस्तुत किए गए हैं। निम्न उन्नीस पंचाशक उपलब्ध होते हैं - 1. श्रावकधर्मविधि 3. चैत्यवन्दनविधि 5. प्रत्याख्यानविधि 7. जिनभवननिर्माणविधि 9. . यात्राविधि 11. साधुधर्मविधि 13. पिण्डविधानविधि 15. आलोचनाविधि 17. कल्पव 19. तपविधि 2. जिनदीक्षाविधि 4. पूजाविधि 6. स्तवनविधि 8. जिनबिम्बप्रतिष्ठाविधि 10. उपासकप्रतिमाविधि 12. साधुसमाचारी विधि 14. शीलांगविधानविधि 16. प्रायश्चित्तविधि 18. भिक्षुप्रतिमाकल्पविधि उपरोक्त पंचाशक अपने-अपनेविषय कोगम्भीरता सेकिंतु संक्षेप में प्रस्तुत करते हैं। इन सभी पंचाशकों का मूल प्रतिपाद्य श्रावक एवं मुनि आचार से सम्बंधित हैं और यह स्पष्ट करतेहैं कि जैन परम्परा में श्रावक और मुनि के लिए करणीय विधिविधानों का स्वरूप उस युग में कैसा था। इस प्रकार हम देखतेहैं कि आचार्य हरिभद्र बहुआयामी व्यक्तित्व के धनी एक विशिष्ट प्रतिभासम्पन्न आचार्य रहे हैं। उनके द्वारा की गई साहित्य सेवा न केवल जैन साहित्य अपितु सम्पूर्ण भारतीय वांग्मय में अपना विशिष्ट स्थान रखती है। हरिभद्र नेजोउदात्त दृष्टि, असाम्प्रदायिक वृत्ति और निर्भयता अपनी कृतियों में प्रदर्शित की है, वैसी उनके पूर्ववर्ती अथवा उत्तरवर्ती किसी भी जैन - जैनेतर विद्वान् नेशायद ही प्रदर्शित की हो। उन्होंने अन्य दर्शनों के विवेचन की एक स्वस्थ परम्परा स्थापित की तथा दार्शनिक और योग- परम्परा में विचार एवं वर्तन की जो अभिनव दशा उद्घाटित की वह विशेषकर आज के युग के असाम्प्रदायिक एवं तुलनात्मक ऐतिहासिक अध्ययन के क्षेत्र में अधिक व्यवहार्य हैं।
SR No.006191
Book TitleJain Sahityakash Ke Aalokit Nakshatra Prachin Jainacharya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith
Publication Year2016
Total Pages228
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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