________________
158
षड्दर्शनसमुच्चय
षड्दर्शनसमुच्चय आचार्य हरिभद्र की लोकविश्रुत दार्शनिक रचना है। मूल कृति मात्र 87 संस्कृत श्लोकों में निबद्ध है। इसमें आचार्य हरिभद्र नेचार्वाक, बौद्ध, न्याय-वैशेषिक, सांख्य, जैन और जैमिनि (मीमांसा दर्शन) इन छ: दर्शनों के सिद्धांतों का, उनकी मान्यता के अनुसार संक्षेप में विवेचन किया है। ज्ञातव्य है कि दर्शनसंग्राहक ग्रंथों में यह एक ऐसी कृति है जोइन भिन्न-भिन्न दर्शनों का खण्डन-मण्डन सेऊ पर उठकर अपनेयथार्थस्वरूप में प्रस्तुत करती है। इस कृति के संदर्भ में विशेष विवेचन हम हरिभद्र के व्यक्तित्व की चर्चा करतेसमय कर चुके हैं। शास्त्रवार्तासमुच्चय
जहां षड्दर्शनसमुच्चय में विभिन्न दर्शनों का यथार्थ प्रस्तुतिकरण है, वहां शास्त्रवार्तासमुच्चय में विविध भारतीय दर्शनों की समीक्षा प्रस्तुत की गई है। षड्दर्शनसमुच्चय की अपेक्षा यह एक विस्तृत कृति है। आचार्य हरिभद्र नेइसे702 संस्कृत श्लोकों में निबद्ध किया है। यह कृति आठ स्तबकों में विभक्त है। प्रथम स्तबक में सामान्य उपदेशके पश्चात् चार्वाक मत की समीक्षा की गई है। द्वितीयस्तबक में भी चार्वाक मत की समीक्षा के साथ-साथ एकान्त-स्वभाववादीआदिमतों की समीक्षा की गई है। इस ग्रंथ के तीसरेस्तबक में आचार्य हरिभद्र नेईश्वर-कर्तृव्य की समीक्षा की है। चतुर्थ स्तबक में विशेष रूप सेसांख्य मत की और प्रसंगान्तर सेबौद्धों के विशेषवाद और क्षणिकवाद का खण्डन किया गया है। पंचम् स्तबक बौद्धों के ही विज्ञानवाद की समीक्षा प्रस्तुत करता है। षष्ठ स्तबक में बौद्धों के क्षणिकवाद की विस्तार सेसमीक्षा की गई है। सप्तम स्तबक में हरिभद्र नेवस्तु की अनन्तधर्मात्मकता और स्याद्वाद की प्रस्थापना की है। साथ ही इस स्तबक के अंत में वेदांत की समीक्षा भी की गई है। अष्टम् स्तबक में मोक्ष एवं मोक्ष-मार्ग का विवेचन है। इसी क्रम में इस स्तबक में प्रसंगान्तर में सर्वज्ञता कोसिद्ध किया है। इसके साथ ही इस स्तबक में शब्दार्थ के स्वरूप परभी विस्तारसेचर्चा उपलब्ध होती है। इस ग्रंथ की विशेषता यह है कि इसमें न्याय-वैशेषिक, सांख्य, बौद्ध आदि दर्शनों की समीक्षा होतेहुए भी उनके प्रस्थापकों के प्रति विशेष आदर-भाव प्रस्तुत किया गया है और उनके द्वारा प्रतिपादित सिद्धांतों का जैन दृष्टि के साथ सुंदर समन्वय किया गया है। इस संदर्भ में हम विशेष चर्चा हरिभद्र के व्यक्तित्व एवं अवदान की चर्चा के प्रसंग में कर चुके हैं, अत: यहां इसेहम यहीं विराम देतेहैं।