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योगबिंदु
___ हरिभद्रसूरि की यह कृति अनुष्टुप छन्द के 527 संस्कृत पद्यों में निबद्ध है। इस कृति में उन्होंनेजैन योग के विस्तृत विवेचन के साथ-साथ अन्य परम्परासम्मत योगों का तुलनात्मक एवं समीक्षात्मक विवेचन भी किया है। इसमें योग अधिकारियों की चर्चा करतेहुए उनके दोप्रकार निरूपित किए गए हैं- (1) चरमावृतवृत्ति, (2) अचरमावृत-आवृत वृत्ति। इसमें चरमावृतवृत्ति कोही मोक्ष का अधिकारी माना गया है। योग के अधिकारी-अनधिकारी का निर्देश करतेसमय मोह में आबद्ध संसारी जीवों को भवाभिनन्दी' कहा है और चारित्री जीवों कोयोग का अधिकारी माना है। योग का प्रभाव, योग की भूमिका के रूप में पूर्वसेवा, पांच प्रकार के अनुष्ठान, सम्यक्तत्व-प्राप्ति का विवेचन, विरति, मोक्ष, आत्मा का स्वरूप, कार्य की सिद्धि में समभाव, कालादि के पांच कारणों का बलाबल, महेश्वरवादी एवं पुरुषाद्वैतवादी के मतों का निरसन आदि के साथ ही हरिभद्र ने गुरु' की विस्तार सेव्याख्या की है।
आध्यात्मिक विकास की पांच भूमिकाओं में सेप्रथम चार का पतंजलि के अनुसार सम्प्रज्ञात-असम्प्रज्ञात के रूप में निर्देश, सर्वदेव नमस्कार की उदारवृत्ति के विषय में चारिसंजीवनी',न्यास गोपेन्द्र और कालातीतं के मंतव्य और कालातीत की अनुपलब्ध कृति में सेसात अवतरण आदि भी इस ग्रंथ के मुख्य प्रतिपाद्य हैं। पुनः इसमें जीवके भेदों के अंतर्गत अपुनर्बन्धक सम्यक् दृष्टि या भिन्न ग्रंथी, देशविरति और सर्वविरति की चर्चा की गई है। योगाधिकार प्राप्ति के संदर्भ में पूर्वसेवा के रूप में विविध आचार-विचारों का निरूपण किया गया है।
आध्यात्मिक विकास की चर्चा करतेहुए अध्यात्म, भावना, ध्यान और वृत्ति-संक्षय- इन पांच भेदों का निर्देश किया गया है। साथ ही इनकी पतंजलि अनुमोदित सम्प्रज्ञात और असम्प्रज्ञात समाधि सेतुलना भी की गई है। इसमें विविध प्रकार के यौगिक अनुष्ठानों की भी चर्चा है जोइस बात कोसूचित करतेहैं कि साधक योग-साधना किस उद्देश्य सेकर रहा है। यौगिक अनुष्ठान पांच हैं- (1) विषानुष्ठान, (2) गरानुष्ठान, (3) अनानुष्ठान, (4) तद्धेतु-अनुष्ठान, (5) अमृतानुष्ठान। इनमें पहलेतीन असद् अनुष्ठान' हैं तथाअंतिम के दोअनुष्ठान सदनुष्ठान' है।
___'सद्योगचिन्तामणि' सेप्रारम्भ होनेवाली इस वृत्ति का श्लोक परिणाम 3620 है। योगबिंदु के स्पष्टीकरण के लिए यह वृत्ति अत्यंत महत्त्वपूर्ण है।