________________
156
परम्परा में प्रचलित मन, वचन और काय - रूप प्रवृत्ति वाली परिभाषा के स्थान पर मोक्ष सेजोड़नेवाले धर्म व्यापार कोयोग कहा गया है। साथ ही इसमें योग का अधिकारी कौन होसकता है, इसकी भी चर्चा की गई है। योगविंशिका में योग के निम्न पांच भेदों का वर्णन है- (1) स्थान, (2) उर्ण, (3) अर्थ, (4) आलम्बन, (5) अनालम्बन | योग के इन पांच भेदों का वर्णन इससे पूर्व किसी भी जैन ग्रंथ में नहीं मिलता। अतः यह आचार्य की अपनी मौलिक कल्पना है। कृति के अंत में इच्छा, प्रकृति, स्थिरता और सिद्धि - इन चार योगांगों और कृति, भक्ति, वचन और असंग - इन चार अनुष्ठानों का भी वर्णन किया गया है। इसके अतिरिक्त इसमें चैत्यवंदन की क्रिया का भी उल्लेख है। योगशतक
-
यह 101 प्राकृत गाथाओं में निबद्ध आचार्य हरिभद्र की योग सम्बंधी रचना है। ग्रंथ के प्रारम्भ में निश्चय और व्यवहार दृष्टि सेयोग का स्वरूप प्रतिपादित किया गया है, इसके पश्चात् आध्यात्मिक विकास के उपायों की चर्चा की गई है। ग्रंथ के उत्तरार्द्ध में चित्त कोस्थिर करनेके लिए अपनी वृत्तियों के प्रति सजग होनेया उनका अवलोकन करनेकी बात कही गई है। अंत में योग सेप्राप्त लब्धियों की चर्चा की गई है। योगदृष्टिसमुच्चय
योगदृष्टिसमुच्चय जैन योग की एक महत्त्वपूर्ण रचना है। आचार्य हरिभद्र इसे 227 संस्कृत पद्यों में निबद्ध किया है। इसमें सर्वप्रथम योग की तीन भूमिकाओं का निर्देश है: (1) दृष्टियोग, (2) इच्छायोग और (3) सामर्थ्ययोग |
दृष्टियोग में सर्वप्रथम मित्रा, तारा, बला, दीप्रा, स्थिरा, कान्ता, प्रभा और परा- इन आठ दृष्टियों का विस्तृत वर्णन है । संसारी जीव की अचरमावर्तकालीन अवस्था को 'ओघ-दृष्टि' और चरमावर्तकालीन अवस्था कोयोग - दृष्टियों के प्रसंग में ही जैन-परम्परा सम्मत चौदह गुणस्थानों की भी योजना कर ली है। इसके पश्चात् उन्होंने इच्छायोग, शास्त्रयोग और सामर्थ्ययोग की चर्चा की है। ग्रंथ के अंत में उन्होंनेयोग अधिकारी के रूप में गोत्रयोगी, कुलयोगी, प्रवृत्तचक्रयोगी और सिद्धयोगी- इन चार प्रकार के योगियों का वर्णन किया है।
आचार्य हरिभद्र नेइस ग्रंथ पर 100 पद्य प्रमाण वृत्ति भी लिखी है, जो 1175 श्लोक परिमाण है।