SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 165
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 159 अनेकान्तजयपताका , जैन दर्शन का केंद्रीय सिद्धांत अनेकान्तवाद है। इस सिद्धांत के प्रस्तुतिकरण हेतु आचार्य हरिभद्र नेसंस्कृत भाषा में इस ग्रंथ की रचना की। चूंकि इस ग्रंथ में अनेकान्तवाद कोअन्य दार्शनिक सिद्धांतों पर विजय प्राप्त करनेवाला दिखाया गया है, अतः इसी आधार पर इसका नामकरणअनेकान्तजयपताका किया गया है। इस ग्रंथ में छः अधिकार हैं- प्रथम अधिकार में अनेकान्तदृष्टि में वस्तु के सद्-असद् स्वरूप का विवेचन किया गया है। दूसरेअधिकार में वस्तु के नित्यत्व और अनित्यत्व की समीक्षा करतेहुए उसेनित्यानित्य बताया गया है। तृतीय अधिकार में वस्तु का सामान्य अथवा विशेष माननेवालेदार्शनिक मतों की समीक्षा करतेहुए अंत में वस्तु कोसामान्यविशेषात्मक सिद्ध करके अनेकान्तदृष्टि की पुष्टि की गई है। आगेचतुर्थ अधिकार में वस्तु के अभिलाप्य और अनभिलाप्य मतों की समीक्षा करतेहुए उसेवाच्यावाच्य निरूपित किया गया है। अगलेअधिकारों में बौद्धों के योगाचार दर्शन की समीक्षा एवं मुक्ति सम्बंधी विभिन्न मान्यताओं की समीक्षा की गई है। इस प्रकार इस कृति में अनेकान्त दृष्टि सेपरस्पर विरोधी मतों के मध्य समन्वय स्थापित किया गयाहै। अनेकान्तवादप्रवेश जहां अनेकान्तजयपताका प्रबुद्ध दार्शनिकों के समक्ष अनेकान्त-वाद के गम्भीर्य कोसमीक्षात्मक शैली में प्रस्तुत करनेहेतु लिखी गई है, वहां अनेकान्तवादप्रवेश सामान्य व्यक्ति हेतु अनेकान्तवाद कोबोधगम्य बनानेके लिए लिखा गया है। यह ग्रंथ भी संस्कृत भाषा में निबद्ध है। इसकी विषय-वस्तु अनेकान्तजयपताका के समान ही है। न्यायप्रवेशटीका - हरिभद्र नेस्वतंत्र दार्शनिक ग्रंथों के प्रणयन के साथ-साथ अन्य परम्परा के दार्शनिक ग्रंथों पर भी टीकाएं लिखीं हैं। इनमें बौद्ध दार्शनिक दिंगनाग के न्याय-प्रवेश पर उनकी टीका बहुत ही प्रसिद्ध है। इस ग्रंथ में न्याय-सम्बंधी बौद्ध मन्तव्य कोही स्पष्ट किया गया है। यह ग्रंथ हरिभद्र की व्यापक और उदार दृष्टि का परिचय देता है। इस ग्रंथ के माध्यम सेजैन परम्परा में भी बौद्धों के न्याय-सम्बंधी मन्तव्यों के अध्ययन की परम्परा का विकास हुआ है।
SR No.006191
Book TitleJain Sahityakash Ke Aalokit Nakshatra Prachin Jainacharya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith
Publication Year2016
Total Pages228
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy