________________
154 ग्रंथ में सर्वप्रथम यापनीय मान्यता के आधार पर स्त्रीमुक्ति पर समर्थन किया गया है।
7. प्रज्ञापना-प्रदेश व्याख्या- इस टीका के प्रारम्भ में जैनप्रवचन की महिमा के बाद मंगल की महिमा का विशेष विवेचन करतेहुए आवश्यक टीका का नामोल्लेख किया गया है। भव्य और अभव्य का विवेचन करनेके बाद प्रथम पद की व्याख्या में प्रज्ञापना के विषय, कर्तृत्व आदि का वर्णन किया गया है। जीव-प्रज्ञापना
और अजीव-प्रज्ञापना का वर्णन करतेहुए एकेन्द्रियादि जीवों का विस्तारपूर्वक वर्णन किया गया है। द्वितीय पद की व्याख्या में पृथ्वीकाय, अप्काय, अग्निकाय, वायुकाय, वनस्पतिकाय तथा द्वीन्द्रियादि के स्थानों का वर्णन किया गया है। तृतीय पद की व्याख्या में कायाद्यल्प-बहुत्व, आयुर्बन्ध का अल्प-बहुत्व, वेद, लेश्या, इन्द्रिय आदि दृष्टियों सेजीव-विचार, लोक सम्बंधी अल्प-बहुत्व, पुद्गलाल्प-बहुत्व, द्रव्याल्प-बहुत्व अवगाढाल्प-बहुत्व आदि पर विचार किया गया है। चतुर्थ पद में नारकों की स्थिति तथा पंचम पद की व्याख्या में नारकपर्याय, अवगाह, षट्स्थानक, कर्मस्थिति और जीवपर्याय का विश्लेषण किया गया है। षष्ठ और सप्तम पद में नारक सम्बंधी विरहकाल का वर्णन है। अष्टम पद में संज्ञा का स्वरूप बताया है। नवम पद में विविध योनियों एवं दशम पद में रत्नप्रभाआदिपृथ्वियों काचरम और अचरम की दृष्टि सेविवेचन किया गया है। ग्यारहवें पद में भाषा के स्वरूप के साथ ही स्त्री, पुरुष और नपुंसक के लक्षणों कोबताया गया है। बारहवें पद में औदारिकादि शरीर के सामान्य स्वरूप का वर्णन तथा तेरहवें पद की व्याख्या में जीव और अजीवके विविध परिणामों का प्रतिपादन किया गया है। आगेके पदों की व्याख्या में कषाय, इंद्रिय, योग, लेश्या, काय-स्थिति, अंतःक्रिया, अवगाहना, संस्थानादि क्रिया, कर्म प्रकृति, कर्म-बन्ध, आहार-परिणाम, उपयोग, पश्यता, संज्ञा, संयम, अवधि, प्रविचार, वेदना और समुद्घात का विशेष वर्णन किया गया है। तीसवें पद में उपयोग और पश्यता की भेदरेखा स्पष्ट करतेहुए साकार उपयोग के आठप्रकार और साकारपश्यता के छः प्रकार बताए गए हैं। आचार्य हरिभद्र की स्वतंत्र कृतियां
षोशशक - इस कृति में एक-एक विषयों कोलेकर 16-16 पद्यों में आचार्य हरिभद्र ने16 षोडशकों की रचना की है। ये16 षोडशक इस प्रकार हैं- (1) धर्मपरीक्षाषोडशक, (2) सद्धर्मदेशनाषोडशक, (3) धर्मलक्षणषोडशक, (4)