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________________ 153 4. नन्दी वृत्ति- यह वृत्ति नन्दीचूर्णि का ही रूपान्तर है। इसमें प्रायः उन्हीं विषयों के व्याख्यान हैं जोनन्दीचूर्णि में हैं। इसमें प्रारम्भ में नन्दी के शब्दार्थ, निक्षेप आदिएवं उसके बाद जिन, वीर और संघ की स्तुति की महत्ता पर प्रकाश डालतेहुए तीर्थं करावलिका, गणधरावलिका और स्थविरावलिका का प्रतिपादन किया गया है। नन्दी वृत्ति में ज्ञान के अध्ययन की योग्यता-अयोग्यता पर विचार करतेहुए लिखा है कि अयोग्य कोज्ञान-दान सेवस्तुतः अकल्याण ही होता है। इसके बाद तीन प्रकार की पर्षद् का व्याख्यान, ज्ञान के भेद-प्रभेद, स्वरूप, विषय आदि का विवेचन किया गया है। केवल-ज्ञान और केवल-दर्शन के क्रमिक उपयोग आदि का प्रतिपादन करतेहुए युगपद्वाद के समर्थक सिद्धसेन आदि का, क्रमिकत्व के समर्थक जिनभद्रगणि आदि का तथा अभेदवाद के समर्थक वृद्धाचार्यों का उल्लेख किया गया है। इसमें वर्णित सिद्धसेन, सिद्धसेन दिवाकर सेभिन्न हैं, क्योंकि सिद्धसेन दिवाकर तृतीय मत अभेदवाद के प्रवर्तक हैं। द्वितीय मत क्रमिकत्व के समर्थक जिनभद्र आदि कोसिद्धांतवादी कहा गया है। अंत में श्रुत के श्रवण और व्याख्यान की विधि बतातेहुए आचार्य नेनन्धध्ययन विवरणसम्पन्न किया है। 5. जीवाभिगमसूत्र लघुवृत्ति - इस वृत्ति के अपरनाम के रूप में 'प्रदेशवृत्ति का उल्लेख मिलता है। इसका ग्रन्थाग्र 1992 गाथाएं है55 किंतु वृत्ति अनुपलब्ध है। जीवाभिगमसूत्र पर आचार्य मलयगिरि कृत एकमात्र वृत्ति उपलब्ध है, जिसमें अनेक ग्रंथ और ग्रंथकारों का नामोल्लेख भी किया गया है। उसमें हरिभद्रकृत तत्त्वार्थटीका का उल्लेख है, परंतुजीवाभिगमपर उनकी किसीवृत्ति का उल्लेख नहीं है। 6. चैत्यवन्दनसूत्र वृत्ति (ललितविस्तरा)- चैत्यवन्दन के सूत्रों पर हरिभद्र नेललितविस्तरा नाम सेएक विस्तृत व्याख्या की रचना की है। यह कृति बौद्धपरम्परा के ललितविस्तर की शैली में प्राकृत मिश्रित संस्कृत में रची गई है। यह ग्रंथ चैत्यवंदन के अनुष्ठान में प्रयुक्त होनेवालेप्राणातिपातदण्डकसूत्र (नमोत्थुणं), चैत्यस्तव (अरिहंत चेईयाणं), चतुर्विशतिस्तव (लोगस्स), श्रुतस्तव (पुक्खरवर), सिद्धस्तव (सिद्धाणं-बुद्धाणं), प्रणिधान सूत्र (जय-वीयराय) आदि के विवेचन के रूप में लिखा गया है। मुख्यतः तोयह ग्रंथ अरहन्त परमात्मा की स्तुतिरूप ही है, परंतु आचार्य हरिभद्र नेइसमें अरिहंत परमात्मा के विशिष्ट गुणों का परिचय देतेहुए अन्य दार्शनिक विचारधाराओं के परिप्रेक्ष्य में तर्कपूर्ण समीक्षा भी की है। इसी प्रसंग में इस
SR No.006191
Book TitleJain Sahityakash Ke Aalokit Nakshatra Prachin Jainacharya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith
Publication Year2016
Total Pages228
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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