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________________ _152 नियुक्ति की व्याख्या में प्रवचन की उत्पत्ति के प्रसंग पर प्रकाश डालतेहुए बताया है कि कुछ पुरुषस्वभावसेही ऐसेहोतेहैं, जिन्हें वीतराग की वाणी अरुचिकर लगती है, इसमें प्रवचनों का कोई दोष नहीं है। दोष तोउन सुननेवालों का है। साथ ही सामायिक के उद्देश, निर्देश, निर्गम, क्षेत्र आदि तेईस द्वारों का विवेचन करतेहुए सामायिक के निर्गम द्वार के प्रसंग में कुलकरों की उत्पत्ति, उनके पूर्वभव, आयु का वर्णन तथा नाभिकुलकर के यहां भगवान् ऋषभदेव का जन्म, तीर्थंकर नाम, गोत्रकर्म बंधन के कारणों पर प्रकाश डालतेहुए अन्य आख्यानों की भांति प्राकृत में धन नामक सार्थवाह का आख्यान दिया गया है। ऋषभदेव के पारणेका उल्लेख करतेहुए विस्तृत विवेचन हेतु वसुदेवहिंडी' का नामोल्लेख किया गया है। भगवान् महावीर के शासन में उत्पन्न चार अनुयोगों का विभाजन करनेवालेआठरक्षित सेसम्बद्ध गाथाओं का वर्णन है। चतुविंशतिस्तव और वंदना नामक द्वितीय और तृतीय आवश्यक का नियुक्ति के अनुसार व्याख्यान कर प्रतिक्रमण नामक चतुर्थ आवश्यक की व्याख्या में ध्यान पर विशेष प्रकाश डाला गया है। साथ ही सात प्रकार के भयस्थानों सम्बंधी अतिचारों की गाथा उद्धृत की गई है। पंचम आवश्यक के रूप में कायोत्सर्ग का विवरण देकर पंचविधकाय के उत्सर्ग की तथा षष्ठ में प्रत्याख्यान की चर्चा करतेहुए वृत्तिकार नेशिष्यहिता नामक आवश्यक टीका सम्पन्न की है। आचार्य हरिभद्र की यह वृत्ति 22,000 श्लोक प्रमाण है। ____ 3. अनुयोगद्वार वृत्ति- यह टीका अनुयोगद्वार चूर्णि की शैली पर लिखी गई है जोकि नन्दीवृत्ति के बाद की कृति है। इसमें आवश्यक' शब्द का निपेक्ष-पद्धति सेविचार कर नामादि आवश्यकों का स्वरूप बतातेहुए नाम, स्थापना, द्रव्य और भाव का स्वरूप स्पष्ट किया गया है। श्रुत का निक्षेप-पद्धति सेव्याख्यान किया है। स्कन्ध, उपक्रम आदि के विवेचन के बाद आनुपूर्वी के विस्तार सेप्रतिपादित किया है। इसके बाद द्विनाम, त्रिनाम, चतुर्नाम, पंचनाम, षटनाम, सप्तनाम, अष्टनाम, नवनाम और दशनाम का व्याख्यान किया गया है। प्रमाण का विवेचन करतेहुए विविध अंगुलों के स्वरूप का वर्णन तथा समय के विवेचन में पल्योपम का विस्तार सेवर्णन किया गया है। शरीर पंचक के पश्चात् भावप्रमाण में प्रत्यक्ष, अनुमान, औपम्य, आगम, दर्शन चारित्र, नय और संख्या का व्याख्यान है। नय पर पुनः विचार करतेहुए ज्ञाननय और क्रियानय का स्वरूप निरूपित करतेहुए ज्ञान और क्रिया दोनों की एक साथ उपयोगिता कोसिद्ध किया गया है।
SR No.006191
Book TitleJain Sahityakash Ke Aalokit Nakshatra Prachin Jainacharya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith
Publication Year2016
Total Pages228
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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